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कृदन्त:
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विटि च बनि च प्रत्यये परे पश्मान्तस्याकारो भवति । उदधिकाः । अप्रेगा: । विषखाः । मोषाः ।
अब्जजा: 1
अतो मन् क्वनिप्वनिविचः ॥६५४॥ आकारान्ताद्धातोर्मन् क्वनिए वनिप विच एते प्रत्यया भवन्ति । मन् सुष्टु ददातीति सुदामा । अश्व इव तिष्ठतीति अश्वत्थामा । क्वनिप् । सुपौवा । सुधीवा । वनिप् । भूरिदावा । घृतपावा । विच् । क्षीरपाः । सर्वापहारी प्रत्ययलोपः।
अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते ॥६५५ ॥ अन्येभ्योपि धातुभ्य एते प्रत्यया दृश्यन्ते । मन कृतवर्मा । क्वनिप् । इण गतौ । प्रातरेति प्रातरित्या । वनिए यज्वा । विच्-त्विष हिंसायां त्विट् ।
क्विप।।६५६॥ धातो: क्विप् दृश्यते । उखाया: स्रंसते उखास्नत् । पर्णध्वत् ।
वः क्वौ ॥६५७॥ वेजसम्प्रसारणं दीर्घमापद्यते क्वावेव । ऊ: उवो उवः ।
उदधि काम्यति = उदधिका, अन्त के पंचम अक्षर को आकार होकर संधि हो गई है। अग्रे गच्छति अग्रेगा: विर्ष खनति = विषखा: खवति गोषा' । अब्ज जनयति अब्जजाः ।
आकारांत धातु से मन, क्वनिप और विच ये प्रत्यय होते हैं ॥६५४ ॥ मन्—सुष्टु ददात्ति-सुदामन् लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर सुदामा बना। अश्व इव तिष्ठति-अश्वत्थामा, यहाँ सकार को तकार हुआ है वह 'लुवर्ण तवर्गलसादन्त्या:' न्याय से स् को द होकर प्रथम अक्षर हुआ है। क्वनिप-कप् और इकार अनुबंध है अत: सुपावन् रहा 'दामागायति' इत्यादि १६४३ सूत्र से ईकार होकर सुपीवन् बना, लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में सुपीवा बना । ऐसे ही सुधीवन से सुधीषा बना है।
क्वनिप् में कानुबंध होने से ५०२ सूत्र से यणवत् कार्य होता है।
वनिप् में-भूरिदावन = भूरिदावा, घृतपावा विच में-क्षीरं पिबतीति-क्षीरपा: विच् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप होता है।
अन्य घात से भी ये प्रत्यय देखे जाते हैं ॥६५५ ॥ __ मन् से--कृतवर्मा, क्वनिप् से—इण् गति अर्थ में है प्रात: एति-प्रातरित्वा । वनिप् यज्वा । विच् में--त्विष्–हिंसा अर्थ में है 'विद्' बना है।
धातु से क्विप् प्रत्यय होता है ॥६५६ ॥ उखाया; संसते = उखाश्रम लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति से रूप बना उखात् पणानि ध्वंसते = पर्णध्वत्।
क्विप् प्रत्यय के आने पर वेञ् का संप्रसारण दीर्घ हो जाता है ॥६५७ ॥ वे-ऊ बना रूप चलने से ऊ: उवौं उव: क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो जाता है ।
१.गां पृथ्वी धनोतीति गोषा।