Book Title: Katantra Roopmala
Author(s): Sharvavarma Acharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 342
________________ ३३० कातन्त्ररूपमाला इस्तम्बशकृतोः व्रीहिवत्सयोः ।।६१० ॥ स्तम्बशकृतोरुपपदयोः कृञ इर्भवति । स्तम्बकरिः व्रीहिः । शकृत्करिः बालवत्सः । हरतेर्वृतिनाथयोः पशो ॥ ६११ ॥ दृतिनाथयोरुपपदयोर्हरतेरिर्भवति पशावर्थे । दृतिहरिः नाथहरिः । पशुः । फलेमलरजः सुग्रहे ॥६१२ ॥ एषूपपदेषु प्रहेरिर्भवति । फलेग्रहिः । मलग्रहिः । रजोग्रहिः । देववातयोरापेः ||६१३ ॥ देववातयोरुपपदयोराप्नोतेरिर्भवति । देवान्प्राप्नोति देवापिः । वातापिः । आत्मोदरकुक्षिषु भृञः खिः ||६१४ ॥ एषु कर्मसूपपदेषु भृञः खिर्भवति । नस्तु क्वचित् इति नलोपः । ह्रस्वरूषोर्मोन्तः ||६१५ ॥ ह्रस्वान्तस्यानव्ययस्यारुषश्चोपपदस्य मंकारान्तो भवति खानुबन्धे कृति परे । आत्मानं विभर्तीति आत्मंभरिः । एवमुदरंभरिः । कुक्षिभरिः । एजेः खश् ॥६१६ ॥ स्तम्ब और शकृत् उपपद में रहने पर 'कृ' धातु से 'इ' प्रत्यय होता है ॥६१० ॥ स्तंबकरि :- बीहिः, शकृत्करिः बालवत्सः । दृति और नाथ शब्द उपपद में होने पर पशु अर्थ में हृ धातु से 'इ' प्रत्यय होता ६११॥ दृतिहरिः, नाथहरिः -- पशुः । फले मल और रज: के उपपद में होने पर ग्रह धातु से 'इ' प्रत्यय होता है ॥६१२ ॥ फलेग्रहि: मलग्रहि; रजोग्रहिः । फलानि गृह्णाति इति । देव और वात उपपद में रहने पर 'आप्' धातु से 'इ' प्रत्यय होता है ॥ ६१३ ॥ देवान् आप्नोति----देवापिः वातम् आप्नोति इति = वातापिः । आत्मन् उदर और कुक्षि शब्द के उपपद में रहने पर 'भृञ्' धातु से 'खि' प्रत्यय होता है ॥६१४ ॥ अव्यय रहित, ह्रस्वान्त और अरुष् के उपपद में रहने पर खानुबंध प्रत्यय के आने पर उपर्युक्त उपपद को मकारान्त हो जाता है ॥ ६१५ ॥ आत्मानं विभर्तीति = आत्मंभरिः 'नस्तु क्वचिद्' सूत्र से आत्मन् के नकार का लोप हो गया है। ऐसे ही उदरं बिभर्ति = उदर + अम् । इ तत्स्थालोप्याः विभक्तयः सूत्र से विभक्ति का लोप होकर ऋ को गुण 'अर' होकर इस सूत्र से मकारांत होकर उदरंभरिः कुक्षिभरि बन गये । कर्म उपपद में होने पर इन्नन्त एज् धातु से खश् होता है ॥६१६ ॥

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