Book Title: Katantra Roopmala
Author(s): Sharvavarma Acharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

Previous | Next

Page 323
________________ कृदन्तः ३११ आनोऽत्रात्मने ॥४९७ ॥ अत्र आन: प्रत्यय आत्मनेपदं भवति । आन्मोन्त आने ।।४९८ ॥ अकारान्तान्मकारागमो भवति आने परे ॥ एधमानः पुत्रः । एधमाना लक्ष्मी: । एधमान कुल । तथा पचन् पचन्ती पचत् । पचमानः पचमाना पचमानमित्यादि । अदन् अदन्ती अदत् । शयान: शयाना शयानं । डेन गुणः ॥४९९ ।। नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणो न भवति अनुबन्धे कृति परे । ब्रुवन् बुवाणः । जुह्वत् जुह्वान: । दधत् दधान: । दीव्यम् । सूयमानः । सुन्वन् सुन्वान; 1 अश्नुवानः ॥ सर्वेषामात्मने इत्यादिना गुणों न भवति । चिन्वन् चिन्वान: । भावे । भूयमानं देवदत्तेन । एध्यमानमस्माभिः । भावे सर्वत्र नपुंसकलिङ्गत्वं एकत्वं च । कर्मणि। पच्यमान ओदन: । पच्यमानौ ओदनौ । पच्यमाना: ओदना: । क्रियमाणः कट इत्यादि। होकर भव अत् रहा । 'असंध्यक्षरयोरस्य तौ तल्लोपश्च' सूत्र २६ से अकार का लोप होकर भवन्त' बना 'कृतद्धितसमासाच' सूत्र ४२३ से लिंग संज्ञा होकर व्यञ्जनान्त पुल्लिंग में 'भवत्' बन गया । स्त्रीलिंग में 'नदाद्यन्न वाह' इत्यादि सूत्र ३७२ से 'ई' प्रत्यय होकर भवन्ती बन कर लिंग संज्ञा होकर, स्वरांत स्वीलिंग में नदी के समान रूप चलेगा। एवं नपुंसक लिंग में भवेत्' बनेगा। लोकोपचार से आनश् और आनङ् प्रत्यय आत्मनेपद में होते हैं। यहाँ आन प्रत्यय आत्मनेपद में होता है ॥४९७ ॥ आन प्रत्यय के आने पर अकारांत शब्द से मकार का आगम हो जाता है ॥४९८ ॥ एध् अ म आन = एधमान 'कृतद्धितसमासाच' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर बालकवत् एधमानः । स्त्रीलिंग में रमावत् 'एधमाना' नपुंसकलिंग में कुलवत् एधमानं बनेगा। ऐसे ही पच् धातु से पचन, पचन्ती, पचत् बनेंगे। आनश् में पचमान: पचमानां, पचमानं बनेंगे। अद्--अदन् । शीङ्–शयान: आदि । डानुबंध कृदन्त प्रत्यय के आने पर नाम्यंत धातु और विकरण को गुण नहीं होता है ॥४९९ ॥ ब्रू अन्त् ‘स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ' ८३ सूत्र से ब्रुक् होकर ब्रुवन्त है, लिंग संज्ञा होकर 'ब्रुवन्' बना । आनश् में--बुवाणः । हु धातु से हु अन्त् “जुहोत्यादीनां सार्वधातुके १५० सूत्र से 'हु हु अन्त् पूर्वोऽभ्यासः' १५१ से पूर्व को अभ्यास संज्ञा हुई पुन: 'हो जः' १५२ सूत्र से अभ्यास के हकार को जकार होकर जुहु अन्त् रहा 'जुहोते: सार्वधातुके १५५ सूत्र से उकार को वकार होकर जुह्वन्तु बना। लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर "अभ्यस्तादन्तिरनकारः" २८८ सूत्र से नकार का लोप होकर 'व्यञ्जनाच' सूत्र से सि का लोप होकर 'जह्वत्' बना । आनश में जुह्वान: बना । 'धा' धातु से—दधत् दधानः । दिवादि गण में-दिव् अन्त् है 'दिवादेर्यन्' सूत्र १८२ से यन् विकरण होकर १८३ सूत्र से दिव् को दीर्घ होकर २६वें सूत्र से अकार का लोप होकर 'दीव्यन्त्' बना । लिंग संज्ञा होकर 'दीव्यन्' स्त्रीलिंग में दीव्यन्ती, नपुंसक में दीव्यत् बना । सूयमानः । स्वादिगण में-नु विकरण होता है अत: सुन्वन्त् बना । सुन्वन् सुन्वान; । अश्नुवानः । "सर्वेषामात्मने सार्वधातुकेऽनुत्तमे पञ्चम्या:" ८७वें सूत्र से आत्मनेपद में गुण नहीं होता है। चिन्वन् चिन्वानः। भाव में—'सार्वधातुके यण' ३१ सूत्र से यंण् होकर आत्मनेपद में भूयमानं बना । ऐसे ही एध्यमानं । भाव में सर्वत्र नपुंसकलिंग और एकवचन ही होता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420