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तिङन्तः
अद्यतनीक्रियातिपत्त्योर्गी वा ॥ २३६ ॥
अद्यतनीक्रियातिपत्त्योरात्मनेपदे परे इडो वा मी आदेश इष्यते ।
वर्णादविश्रिङीशीङः ॥ २३७ ॥
शिवश्रिडीङ्गीङ्वर्जितादेकस्वरादिवर्णात्परमसार्वधातुकमनिङ् भवति । आदेशबलादगुणित्वे ।
अध्यगीष्ट अध्यगीषातां अध्यगीषत। अध्यगीष्ठाः अद्यगीषाथां । सिचो धकारे ||२३८ ॥
सिचो लोपणे भवति धकारे परे ।
२४९
नाम्यन्ताद्धातोराशी रद्यतनपरोक्षासु श्री छः ।। २३९ ।।
नाम्यन्ताद्धातोराशीरद्यतनीपरोक्षासु धो ढो भवति । अध्यगीवं । अध्यगीषि अध्यगीष्वहि अध्यगीष्महि । पक्षे स्वरादीनां वृद्धिरादेः । अध्यैष्ट अध्यैषातां अध्यषत। अध्यष्ठाः अध्यैषाथां अध्यैवं । अध्यैषि अध्यैष्वहि अध्यैष्महि । परस्मै इति किम् ?
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भूप्राप्तौ ॥ २४० ॥
भूधातो: भूप्राप्तावात्मनेपदी भवति । अभविष्ट अभविषातां अभविषत । अभविष्ठाः अभविषाथां अभविदवं । अभविषि अभविष्वहि । अभविष्यहि । समवप्रविभ्यश्चेति स्था रुचादिः । स्थादोरिरद्यतन्यामात्मने ॥ २४९ ॥
स्थादासंज्ञकयोरन्तस्य इर्भवति अद्यतन्यामात्मनेपदे परे ।
अद्यतनी और क्रियातिपत्ति में आत्मनेपद के आने पर 'इङ्' को विकल्प से 'गी' आदेश होता है | २३६ ॥
श्वि, श्रि, डीङ्, शीङ् को छोड़कर एक स्वरादि वर्ण से परे असार्वधातुक अनिट् होते हैं ॥ २३७ ॥
आत्मनेपद में 'त' विभक्ति में अध्यगीष् में सिच् पर में रहते गुण क्यों नहीं हुआ गी आदेश करने से गुण नहीं होता है अध्यगीष्ट बना, इसमें सिच् का आगम होकर स् को घ् हुआ है और ष् के निमित्त से तवर्ग को टवर्ग हुआ है । अध्यगीष्ध्वं है ।
धकार के आने पर सिच् का लोप हो जाता है ॥२३८ ॥
नाम्यंत धातु से आशी अद्यतनी और परोक्षा में 'ध' को द हो जाता है ॥२३९ ॥ अतः अध्यगीवं बना । पक्ष में जब 'गी' आदेश नहीं हुआ तब 'इ' को 'स्वरादीनां वृद्धिरादेः' सूत्र ४८ से पूर्व स्वर को वृद्धि होकर सिच् होकर 'अध्यैष्ट' बना ।
परस्मैपद में ऐसा क्यों कहा ?
भू धातु प्राप्ति अर्थ में आत्मनेपदी होता है ॥ २४० ॥
आत्मनेपद में 'सिच् इट्' होकर 'अभविष्ट' बनेगा। सम्, अव, प्र, वि उपसर्ग से परे स्था धातु रुचादि हो जाता है अर्थात् इन उपसर्गों के योग से स्था धातु आत्मनेपद में चलता है। सम् अस्था त । आत्मनेपद में अद्यतनी से स्था, दा संज्ञक धातु के अंत को इकार होता है ॥२४१ ॥