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कातन्त्ररूपमाला
तवर्गस्य षटवर्गादृवर्गः ॥११८ ।। तवर्गस्य षकारटवर्गाभ्यां परस्य टवों भवत्यान्तरतम्यात् । आचष्टे आचक्षाते आचक्षते ।
षढोः कः से ॥११९ ।। षढो: को भवति सकारे परे । आचक्षे आचक्षाथे।
घुटां तृतीयश्चतुर्थेषु ॥१२० ।। धुटां तृतीयो भवति चतुर्थेषु परतः । ॐवर्णटवरषा मूर्द्धन्या इति न्यायात् धकारस्य डकारः । आचडढ्वे । आरक्षे आचश्वहे ! आचाहे । आचक्षीत आनक्षीयातां आचक्षीरन् । आधष्टां आचक्षातां आचक्षतां । आचक्ष्व आचक्षाथां आचड्ढवं । आवः आचक्षावहे आचक्षामहै। आचष्ट आचक्षातां आचक्षत । आचष्ठा; आचक्षाथां आचड्डवं । आवक्षि आचश्वहि आचक्ष्महि ।
चक्षङ् ख्याञ्॥१२१ ।। चक्षङ् इत्येतस्य ख्याआदेशो भवति असार्वधातुके परे । आख्यायते । ईश् ऐश्वर्ये ।
छशोश्च ॥१२२॥ छशोश्च षो भवति धुट्यन्ते । ईष्टे ईशाते ईशते ।
ईशः से ।।१२३॥
तवर्ग को षकार और टवर्ग से परे टवर्म हो जाता है ॥११८ ॥ अत: क्रम से 'आचष्टे' बना । अन्ते में सूत्र ७९ से नकार का लोप होकर आचक्ष + अते= आचक्षते बना। आचक् ष् से ककार का लोप करके आचष् से रहा।
सकार के आने पर ष और ढ को 'क' हो जाता है ॥११९ ।। आचक् से 'नामिकरपरः' इत्यादि से क से परे स को ष होकर “कषयोगे क्ष:" नियम से क्ष हो गया अत: 'आचक्षे बना । आचक्षु ध्वे है । आचरू ध्वे है 'स्को: संयोगाद्योरन्ते च' ११७ सूत्र से ककार का लोप होकर।
चतुर्थ अक्षर के आने पर धुट् को तृतीय अक्षर हो जाता है ॥१२० ॥ पुन: "ऋवर्णटवर्गरधामूर्धन्या" इस न्याय से षकार को "ड" हो गया। पुन: 'तवर्गस्य पटवर्गाट्टवर्ग:' सूत्र ११८वे से टवर्ग से परे तवर्ग को टवर्ग होने से 'आचइवे' बना।
सप्तमी में आचक्षीत । पंचमी में-आवष्टां । ध्वं में 'आचड्ढ्वं' बना । हास्तनी में पूर्व में अट् का आगम होकर आङ् उपसर्ग मिलाने से वही । आ+ अचाष्ट = आचष्ट बना । थास् में आचष्ठाः, ध्वं में आचड्दवं बना।
भाव कर्म में-चक्ष य ते है
चक्षङ् को ख्याञ् आदेश हो जाता है असार्वधातुक के आने पर ॥१२१ ॥ आख्यायते बना। ईश् धातु ऐश्वर्य अर्थ में है। ईश् ते हैं।
धुट् अंत में आने पर छ् और श को 'म्' हो जाता है ॥१२२ ॥ ११८वें सूत्र से तवर्ग को टवर्ग होकर 'ईष्टे' बना। ईश् से परे स आदि विभक्ति के आने पर इट् का आगम हो जाता है ॥१२३ ।।