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कातन्त्ररूपमाला
एयेऽकवादिस्त लप्यते ॥४४.. !! एये प्रत्यये परे उवर्णो लुप्यते नतु कद्रूशब्दस्य। भाद्रबाहेय: । कामण्डलेयः । अकवा इति किम् । काद्रवेयः।
सर्वनाम्नः संज्ञाविषये स्त्रियां विहितत्त्वात् ।।४८९॥ सर्वनाम्नः परः संज्ञाविषये एयण् भवति अपत्येऽभिधेये । सर्वा काचित् स्वी। सर्वाया अपत्यं सार्वेयः । इत्यादि।
इणतः ।।४९० ॥ अकारान्तात्राम्म इण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽभिधेये। दक्षस्यापत्यं दाक्षिः। एवं दाशरथिः । आर्जुनिः । दैवदत्तिः । अस्यापत्यं इ: इत्यादि।
कद्रू को छोड़कर उकारांत शब्द से एयण प्रत्यय के आने पर उ वर्ण का लोप हो जाता है ।।४८८॥ ___अतः भाद्रबाह एय लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर भाद्रबाहेयः बना ऐसे कमंडलोरपत्यं-कामण्डलेयः ।
कद्रू को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? कद्रू के ऊको “उवर्णस्त्वोत्वमाषाद्यः” सूत्र से ओ होकर एयण् प्रत्यय से काद्रवेय: बना।
सर्वा नाम की कोई स्त्री है अत: सर्वाया: अपत्य है ।
सर्वनाम से परे संज्ञा अर्थ में अपत्य वाचक एयण प्रत्यय होता है ॥४८९ ।।
सर्वा + ङस् एयण विभक्ति का लोप होकर 'वृद्धिरादौ सणे' सूत्र से वृद्धि होकर “इववर्णयोलोपः" से 'आ' का लोप होकर साय बना लिंग संज्ञा होकर विभक्ति के आने से सार्वेय: बना । इत्यादि। दक्षस्यापत्यं है
अकारांत शब्द से अपत्य अर्थ में इण प्रत्यय होता है ॥४९० ।।। अत: दक्ष+ ङस् विभक्ति का लोप होकर, वृद्धि होकर अवर्ण का लोप होकर लिंग संज्ञा हुई और विभक्ति आकर दाक्षि: बना। इसी प्रकार से दशरथस्यापत्यं—दाशरथि: अर्जुनस्थापत्यं आधुनि: देवदत्तस्यापत्यं दैवदत्तिः।
_ 'अ' के एकाक्षरी कोश में अनेक अर्थ होते हैं 'अ' के अरहंत, विष्णु आदि 'अ' का रूप पुरुषवत् चलते हैं। जैसे-अ औ
आः आत
आभ्याम् एभ्यः अम् औ आन्
अयोः
आनाम एन आभ्याम् ऐ
ए। आय आभ्याम् एभ्यः अतः अस्य अपत्यं है। ‘इणत: ४९० से इण् प्रत्यय हुआ। 'वृद्धिरादौ सणे' से अ को वृद्धि होकर 'आ' हुआ । 'इवर्णावर्णयो' सूत्र से आ का लोप होकर 'इ' रहा लिंगसंज्ञा होकर सि विभक्ति आई 'इ' को अग्निसंज्ञा होकर मनिवत रूप चलेंगे। 'इ' बना। इत्यादि।
उपबाहोरपत्यं, भद्रबाहोरपत्यं हैं।
अस्य
अयोः