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तिङन्तः धातोरात्मनेपदानि भवन्ति भावकर्मणोरर्थयोः । अकर्मकाद्धातोर्भावे, सकर्मकात्कर्मणि च ।
लज्जासत्तास्थितिजागरणं वृद्धिक्षयभयजीवितमरणम्। 'स्वानक्रीडारुचिदीप्त्यर्था धातद एते कर्मविमुक्ताः ॥ १ ॥ क्रियापदं कर्तृपदेन युक्तं व्यपेक्षते यत्र किमित्यपेक्षां ।
सकर्मक तं सुथियो वदन्ति शेषस्ततो धातुरकर्मकः स्यात् ।। २ ।। को भाव: ?
सन्मानं भावलिङ्गं स्यादसंपृक्तं तु कारकैः ।
धात्वर्थ: केवल शुद्धोः भाव इत्यभिधीयते ।। १॥ प्रथमैकवचनमेव । किं कर्म ? क्रियाविषयं कर्म। तत्र द्विवचनबहुवचनमपि । मध्यमोत्तमपुरुषावपि।
सार्वधातुके यण्॥ ३१॥ धातोर्यण् भवति भावकर्मणोर्विहिते सार्वधातुके परे।
नाम्यन्तयोर्धातुविकरणयोर्गुणः ।। ३२ ।। भाव और कर्म के अर्थ में थातु से आत्मनेपद हो जाता है । अकर्मक धातु से भाव में एवं सकर्मक धातु से कर्म में प्रयोग होता है।
अकर्मक धातु कौन हैं ?
श्लोकार्थ-लज्जा, सत्ता, स्थिति, जागरण, वृद्धि नाश, भय, जीवन, मरण, शयन, क्रीड़ा, रुचि, क्रांति इन अर्थ वाले धातु अकर्मक होते हैं । अर्थात् इनके प्रयोग में कर्म कारक नहीं रहता है ।। १ ।।
सकर्मक धातु कौन हैं ?
जहाँ कर्ता पद से युक्त क्रिया पद, "क्या" इसकी अपेक्षा रखता है, विद्वान् जन उस धातु को सकर्मक कहते हैं। बाकी शेष धातुएँ अकर्मक हैं ॥ २ ॥
माव किसे कहते हैं ?
श्लोकार्थ-जो सन्मात्र है स्वरूपत: है भाव लिंग है कारकों के सम्पर्क से रहित है ऐसा केवल, शुद्ध धातु का अर्थ 'भाव' कहलाता है ।। १ ।।
इस भाव में प्रथम पुरुष का एकवचन ही होता है। कर्म किसे कहते हैं ?
क्रिया के विषय को कर्म कहते हैं। कर्म में द्विवचन बहुवचन भी होते हैं । एवं मध्यम, उत्तम पुरुष भी होते हैं। यहाँ भाव अर्थ में विवक्षित भू धातु से आत्मनेपद के प्रथम पुरुष का एकवचन 'ते' विभक्ति है । 'भू ते' है।
सार्वधातुक में 'यण' होता है ॥ ३१ ॥ भाव, कर्म में कहे गये सार्वधातुक के आने पर धातु से 'यण् विकरण होता है। णकार का अनुबंध हो जाता है।
नाम्यंत, धातु और विकरण को गुण हो जाता है ॥ ३२॥
१.शयन इति पाठांतरे।