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तद्धितं
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बालादेश्च विधीयते ॥४९१॥ बाह्वादेर्गणादिण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽभिधेये । उपबाहोरपत्यमौपबाहविः । भाद्रबाहविः ।
नस्तु क्वचित्॥४९२॥ नस्य लोपो भवति क्वचित् लक्ष्यानुरोधात् ।। उडुलोम्नोऽपत्यं औडुलोमिः । एवमारिनशमि: ।
मनोः षष्यौ ।।४९३॥ षष्ठ्यन्तान्मनुशब्दात्परौ षण्ष्यौ प्रत्ययो भवत: अपत्याथें । मनोरपत्यं मानुषः । मनुष्य: । मानवः । वाणपत्ये इति अण् भवति ।
कुर्वादेर्यण् ।।४८५ ।। कुर्वादेर्गणात् यण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽर्थे । पक्षे कुरोरपत्य कौरव्यः । वाणपत्ये इति अण् भवति । कौरव: । लहस्यापत्यं लाह्यः । ।
क्षत्रादियः ।।४९४॥ षष्ट्यन्तात् क्षत्रशब्दात्पर इय: प्रत्ययो भवति अपत्येर्थे । क्षत्रियः ।
बाह आदि गण से अपत्य अर्थ में इण प्रत्यय होता है ।।४९१ ॥ पूर्ववत् विभक्ति का लोप, वृद्धि 'उ' को ओ, ओ को अव् होकर औपबाहवि लिं। मंज्ञा होकर विभक्ति आकर 'औपबाहवि:' बना, वैसे ही भाद्रबाहवि: बना ।
उडुलोम्नः अपत्यं, अग्निशर्मण: अपत्यं हैं। 'बाह्वादेश्च विधीयते' सूत्र से इण् प्रत्यय होकर पूर्ववत् सारे कार्य होंगे यथा-उडुलोमन् + ङस् विभक्ति का लोप, वृद्धि हुई।
कहीं लक्ष्य के अनुरोध से नकार का लोप हो जाता है ॥४९२ ।। इस सूत्र से नकार का लोप 'इवर्णा' इत्यादि से 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा एवं विभक्ति आकर 'औडुलोमि:' बना। वैसे ही 'आग्निशर्मि:' बना ।
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मनोरपन्यं है
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षष्ठ्यंत मनु शब्द से परे अपत्य अर्थ में षण् और ष्य और अण प्रत्यय होते हैं ॥४९३ ।।
मनु + इस् षण णानुबंध से पूर्वस्वर को वृद्धि लिंग संज्ञा, विभक्ति आकर 'मानुषः' बना । 'ष्य' प्रत्यय से मनुष्य: । अण प्रत्यय से मानव: बना।।
कुरु आदि गण से अपत्य अर्थ में यण् प्रत्यय होता है ॥४८५ ॥ कुरो: अपत्यं कुरु + ङस् यण् “वृद्धिरादौ सणे" ४७४वें सूत्र से वृद्धि होकर एवं उवर्ण को ओ, ओ को अव् होकर लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'कौरव्यः' बना। 'वाणपत्ये' सूत्र ४७३वें से अण: प्रत्यय होकर पूर्ववत् सारी क्रियायें होकर 'कौरवः' बना।
लहस्यापत्यं है यण् प्रत्यय से 'लाह्यः' बना। क्षवस्थापत्य है।
षष्ठ्यंत क्षत्र शब्द से परे अपत्य अर्थ में 'इय' प्रत्यय हो जाता है ।।४९४ ।। "इवर्णावर्ण" इत्यादि से 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'क्षत्रियः' बना ।
१. यह सूत्र पहले आ चुका है।