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कातन्त्ररुपमाला
चतुःषष्टिः कला: स्त्रीणां तधातुःसप्ततिर्नृणाम्। आपकः प्रापकस्तासां श्रीमानृषभतीर्थकृत् ॥ ३ ॥ तेन ब्राहम्यै कुमार्यै च कथितं पाठहेतवे । कालापकं तत्कौमारं नाम्ना शब्दानुशासनम् ॥ ४॥ यद्वदन्त्यधियः केचित् शिखिनः स्कन्दवाहिनः । पुच्छानिर्गतसूत्रं स्यात्कालापमानः परम् ।। ५ ।। तन युक्त यत: केकी वक्ति प्लुतस्वरानुगम्। त्रिमात्रं च शिखी ब्रूयादिति प्रामाणिकोक्तित: ॥६॥ न चात्र मातृकाम्नाये स्वरेषु प्लुतसंग्रहः ।।
तस्मात् श्रीऋषभादिष्टमित्येव प्रतिपद्यताम् ॥ ७॥ इति श्रीभावसेनरचितायां कातंत्ररूपमालायां स्यादिनिरूपणं प्रथम: संदर्भ:।
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स्त्रियों की चौंसठ कलायें होती हैं और पुरुषों की बहत्तर कलायें हैं इन सभी कलाओं को बतलाने वाले प्राप्त कराने वाले श्रीमान् तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान् हैं ॥ ३ ॥
उन ऋषभदेव भगवान् ने ही ब्राह्मी और कुमारी को पढ़ाने के लिए इस व्याकरण को कहा है अतएव यह शब्दानुशासन कालापक और कौमार नाम से भी प्रसिद्ध है ॥ ४ ।।
जो कोई अज्ञानी लोग ऐसा कहते हैं कि स्कंदवाही शिखी के पुच्छ से ये सूत्र निकले हुए हैं अत: इसे 'कालापक' कहते हैं ।। ५ ।।
आचार्य कहते हैं कि यह बात नहीं है क्योंकि केकी-मयूर प्लुत स्वर का अनुसरण करते हुए बोलता है । वह प्लुत त्रिमात्रिक है और वह मयूर त्रिमात्रिक बोलता है यह बात प्रामाणिक है ॥ ६ ॥
किंतु इस व्याकरण में वर्णसमुदाय में स्वरों में प्लुत का संग्रह नहीं किया है इसलिये यह व्याकरण श्रीऋषभदेव से ही उत्पन्न हुआ है यह बात इष्ट है इस प्रकार से ही स्वीकार करना चाहिये ॥ ७ ॥
भावार्थ-तीसरे श्लोक में कहा है कि स्त्रियों की चौंसठ कलायें और पुरुषों की चौहत्तर कलायें हैं इनको आपक-प्राप्त कराने वाले भगवान् ऋषभदेव है । उन्हीं भगवान् ने अपनी पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी इन दोनों को पढ़ाने के लिये यह 'शब्दानुशासन'-व्याकरण कहा है। इसीलिये इसे कला को प्राप्त कराने वाली होने से कालापक' और कुमारी-पुत्रियों को पढ़ाने के लिये होने से 'कौमार' ये दो नाम हैं। यहाँ पर यह कलाप व्याकरण या कालापक व्याकरण के नाम की सार्थकता दिखलाई है।
__ इस प्रकार श्री भावसेन विरचित कातंवरूपमाला में 'स्यादि' को निरूपित करने वाला प्रथम संदर्भ पूर्ण हुआ।