________________
समास:
इन्द्रः समुच्चयो नाम्नोर्बहूनां वाऽपि यो भवेत् ॥ ४४९ ।।
नोर्बहूनां वापि समुच्चयो द्वन्द्वो भवेत् । स च इतरेतरयोगः समाहारश्चेति द्विप्रकारः । [ यंत्र द्वित्वं बहुत्वं च स द्वन्द्व इतरेतरः । समाहारो भवेदन्यो यत्रेकत्वनपुंसके ॥ 3
द्वित्वे द्विवचनं । बहुवे बहुवचनं । शुकमयूरौ ॥ धवखदिरपलाशाः ।
अल्पस्वरतरं तत्र पूर्वम् ॥४४२ ॥
तत्र द्वन्द्वे समासे अल्पस्वरतरं पदं पूर्वं निपात्यते । प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च प्लक्षन्यग्रोधौ । एवं रथपदाती । तरग्रहणं द्विपदनियमार्थम् । अन्यत्र शंखदुंदुभिवीणा: ।
यच्चार्चितं द्वयोः ||४४३ ॥
तत्र द्वन्द्वे समासे द्वयोर्यदर्चितं तत्पूर्वं निपात्यते । वासुदेवार्जुनौ । शुककाकौ । हंसबलाके। देवदैत्यौ । क्वचिद् व्यभिचरति च । तथा हि
न नरनारायणादिषु ॥ ४४४ ॥
१५९
अथ द्वन्द्व समास प्रकरण ।
शुकश्च मयूरश्च । धत्रश्च खदिरश्च पलाशश्च । ऐसा विग्रह हुआ ।
दो पदों का अथवा बहुत से पदों का समुच्चय होना द्वंद्व समास कहलाता है ॥४४१ ॥ उस द्वंद्व समास के दो भेद हैं। इतरेर पो द्वंह और समाहारद्वय ।
|
श्लोकार्थ — जहाँ पर दो पदों का और बहुत से पदों का समास होता है वह इतरेतर द्वन्द्व है और दूसरा समाहार द्वन्द्व है। इस समाहार द्वन्द्र में नपुंसक लिंग का एकवचन ही होता है । अर्थात् इतरेतर द्वन्द्व में यदि दो पद हैं तो द्विवचन, यदि बहुत से पद हैं तो बहुवचन होता है, किन्तु समाहार द्वन्द्व में नपुंसक लिंग का एकवचन ही होता है ॥ १ ॥
शुक +सि मयूर + सि विभकति का लोप, लिंग संज्ञा दो पद में द्विवचन में, " शुकमयूरौ " बना तथैव धवखदिरपलाश को बहुवचन में 'धवखदिरपलाशाः' बना ।
इस द्वन्द्व समास में अल्पस्वरतर वाले पद का पूर्व में निपात होता है ॥४४२ ॥
जैसे— प्लक्षश्च न्यग्रोधश्च - प्लक्षन्यग्रोधौ बना । एवं रथश्च पदातिश्च रथपदाती। सूत्र में तर शब्द क्यों लिया है ? तर शब्द का ग्रहण के लिये किया गया है। जहाँ बहुत से पद हों वहाँ यह नियम नहीं लगेगा। जैसे शंखश्च दुन्दुभिश्च वीणा च यहाँ तीन पदों में शंख और वीणा दो पद अल्पस्वर वाले हैं यहाँ वह नियम नहीं समझना । अतः शंखदुन्दुभिवीणा:' बन गया ।
दोनों में जो अर्चित है उसे पूर्व में रखना ||४४३ ॥
इस द्वन्द्व समास में दोनों में जो अर्चित-पूज्य है उसका पूर्व में निपात होता है। जैसे- वासुदेवश्च अर्जुनश्च इसमें अर्जुन में अल्पस्वर है अतः उसका पूर्व में निपात आवश्यक था, किंतु उसे बाधित कर इस सूत्र से अर्चित 'वासुदेव' को पूर्व में लेना है, अतः 'वासुदेवार्जुनौ शुककाकौ, हंसबको, देवदैत्यों ।'
कहीं पर व्यभिचार — नियम का उल्लंघन भी देखा जाता है। जैसे—
नर और नारायण आदिकों में यह नियम नहीं है ॥ ४४४ ॥
१. जहाँ द्विवचनान्त और बहुवचनान्त प्रयोग में पाये जाये उसे इतरेतर योग जानो । २. जहाँ पर एक वचनान्त होते हुए नपुंसक लिंग हो उसको समाहार द्वंद्व समझो।