Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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उसके बाद यह जीव अनन्तर समय में क्षीणकषाय होकर क्षीणकषायके एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक तीन घातिकर्मोंकी उदीरणा करता है । उसके बाद उदय होकर क्षीणकषाय के अन्तिम समय तक इन कर्मोंका उदय रहता है । तेरहवें गुणस्थानके प्रथम समय में इन कर्मोंका अभाव होने से यह जीव 'सर्वज्ञ' पदको प्राप्त कर लेता है । बारहवें गुणस्थान में यह जीव वीतराग तो हो ही गया था । इस प्रकार वीतराग सर्वज्ञ होकर जिस विधिसे अपने कर्मों का क्षय किया उस विधिका उपदेश देता हुआ विहार करता है । यहाँ पूरे विषयको स्पष्ट करने के लिये
मूल गाथाएँ
आईं हैं।
एक उद्धृत गाथामें बतलाया है कि तीर्थंकरका विहार लोकको सुखका निमित्त तो है, पर उनका वह कार्य पुण्य फलवाला नहीं है और न ही उनका दान-पूजाका आरम्भ करनेवाला वचन भी कर्मो से लिप्त करनेवाला है ।
उनके जो सातावेदनीयका बन्ध होता है वह योगके कारण ही होता है । वीतराग होने के कारण वह स्थिति अनुभागका बन्ध करनेवाला नहीं होता । फिर भी उस कर्मको जो सातावेदनीय कहा गया है वह बाह्य अनुकूलतामें निमित्त होनेके कारण ही कहा गया है।
वे १८ दोषोंसे रहित होते हैं और सदा ही एक समयकी स्थितिवाले सातावेदनीयका उदय बना रहनेसे असातावेदनीयका उदय भी सातारूप परिणम जाता है, इसलिये उनके क्षुधा, पिनासा आदि १८ दोष नहीं होते । दूसरे असातावेदनीयका टवें आदि गुणस्थानों में उत्तरोत्तर हजारों स्थिति काण्डकघान ओर अनुभागकाण्डकघान हो जानेसे उनके असातावेदनीयका अव्यका उदयही होता है जो प्रतिसमय सातारूप परिणम जाता है। यहाँ क्रमसे किस कर्मकी कैसे क्षपणा होती है यह क्षपणाधिकार में बतलाया गया है। इस प्रकार कथन करनेके बाद कषायप्राभृतकी प्ररूपणा समाप्त की गई है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा यहाँ समाप्त होती है ।
उसके बाद पश्चिमस्कन्ध नामक अर्थाधिकारको प्रारम्भ करते हुए बतलाया है कि समस्त श्रुतस्कन्धके चूलिकारूपसे यह अर्थाधिकार अवस्थित है । उसका विचार करते हुए बतलाया है कि सबके अन्त में होनेवाले स्कन्धको पश्चिमस्कन्ध कहते हैं, क्योंकि घातिकर्मों को क्षय करके इस अर्थाधिकारका वर्णन किया जाता है, इसलिये इसे पश्चिमस्कन्ध कहा गया है। इसमें अघातिकर्मों को क्षय करने की कैसी विधि होती है इसका विवेचन किया है।
अथवा चार घातिकर्मोंके क्षय करनेके बाद केवलीके तैजस और कार्मणनोकर्मके साथ जो अन्तिम औदारिकशरीर नोकर्मस्कन्ध पाया जाता है उसे पश्चिमस्कन्ध कहते हैं, क्योंकि यह नोकर्मशरीर सबसे अन्तिम है ।
अथवा अयोगकेवलीके अन्तिम कर्मस्कन्धके साथ अन्तिम औदारिक शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाला जो जीव प्रदेशस्कन्ध है वह भी पश्चिमस्कन्ध है, क्योंकि उसके होनेपर केवलिसमुद्धात की प्ररूपणा यहां पाई जाती है ।
यहाँ यह पृच्छा की जाती है कि इस पश्चिमस्कन्ध अधिकारको महाकर्म प्रकृतिप्राभृत में किया गया है उसकी कषायप्राभृतमें प्ररूपणा क्यों की जा रही है ?
यह एक पृच्छा है उसका समाधान करते हुए बतलाया है कि दोनों स्थानों पर उसकी प्ररूपणा करनेमें कोई बाधा नहीं आती इसलिये आचार्य महाराज कहते हैं कि हमने जो यह कहा कि पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार पूरे श्रुतस्कन्धसे सम्बन्ध रखता है वह ठीक ही कहा हैं । इसलिये प्रकृत विषय से सम्बन्ध रखनेवाले विषयकी यहाँ प्ररूपणाकी जाती है