Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 22
________________ यह प्ररूपणा क्रोध संज्वलनके साथ पुरुष वेदसे जो जीव क्षपकवेणि पर चढ़ता है उसको ध्यानमें रखकर की है। आगे मान संज्वलनके साथ पुरुषवेद से क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए जीवकी अपेक्षा कथन करने पर जब तक अन्तरकरण नहीं किया तब तक तो कोई विशेषता नहीं है। उक्त दोनों जीवों की अपेक्षा कथन एक समान है। ___ अन्तरकरण करनेके बाद क्रोध की प्रथम स्थिति न करके मान संज्वलन की प्रथम स्थिति करता है। वह क्रोध को प्रथम स्थिति क्रोधके क्षपणाकालके बराबर होती है। क्रोधसे चढ़ा हुआ जीव जहां अश्वकर्णकरण करता है, उस स्थानमें जाकर मानसे चढ़ा हुआ जीव क्रोधको क्षपणा करता है। क्रोधसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीव का जो कृष्टिकरणका काल है, मानसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीव उस कालमें अश्वकर्णकरण करता है । क्रोधसे आपकश्रेणिपर चढ़ाहुआ जीव जिस कालमें क्रोधको क्षपणा करता है उस कालमें मानसे चढ़ा हुमा जीव कृष्टिकरण करता है। क्रोधसे चढ़ा हुआ जीव जिस कालमें मानकी क्षपणा करता है उस कालमें मानसे चढ़ा हुआ जीव मानको क्षपणा करता है। इसके आगे क्रोध और मानसे श्रेणिपर चढ़े हुए दोनों जीवोंकी विधि समान है। मान संज्वलनको प्रथम स्थिति का हम पूर्वमें उल्लेख कर आए हैं। माया संज्वलनसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी प्रथम स्थितिमें, क्रोधसंज्वलनसे चढ़ा हुआ जीव जिस कालमें अश्वकर्णकरण करता है वह काल भी सम्मिलित हो जाता है । इसी प्रकार लोभ संज्वलनकी अपेक्षा विचार कर लेना चाहिथे, क्योंकि लोभसंज्वलनकी प्रथम स्थिति लोभ संज्वलनकी प्रथम स्थिति माया संज्वलनसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुये जोवको अपेक्षा बड़ी होती है। स्त्रीवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जोवको अपेक्षा जो भेद है उसका विवेचन मूलमें किया ही है, इसलिए वहाँ से जान लेना चाहिए । इतना अवश्य है कि जो स्त्रीवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है उसके नपुंसकवेदका क्षय होकर स्त्रीवेदका क्षय होता है। साथ ही इतनी और विशेषता है कि पुरुषवेदके क्षय करने में जितना काल लगता है उतना ही काल स्त्रीवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढे हए जोव को स्त्रीवेदके क्षय करनेमें लगता है। यह जीव अपगतवेदी होनेके बाद हो सात नोकषायोंका क्षय करता है। यहाँ इस विशेषताको ध्यानमें रखकर शेष कथनको जान लेना चाहिये। ___ नपुंसकवेद से क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीव की अपेक्षा विचार करने पर स्त्रीवेदसे चढ़े हुए जीवकी जितनी प्रथम स्थिति होती है उतनी बड़ी नपुसकवेदसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवकी प्रथम स्थिति होती है। यह अन्तर करनेके दूसरे समयमें नपुंसकवेदका क्षय करनेके लिये आरम्भ करता है। उसके बाद स्त्रीवेदके क्षय करनेकेलिये आरम्भ करते हुए नपुसकवेदका क्षय करता है। इसके बाद दोनों ही कर्म स्त्रीवेद और नपुसकवेद एक साथ क्षयको प्राप्त होते हैं। उसके बाद सात नोकषायोंका क्षय करता है। यहाँ यह शंका की गई है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा तीनों ही कालोंमें जो परिणाम जिस जीवके जिस कालमें होते हैं वही परिणाम दूसरे जीवोंके भी उस कालमें होते हैं फिर यह फरक क्यों होता है ? इसका समाधान यह है कि वेदों और कषायोंकी अपेक्षा करण परिणामोंमें भेद न होने पर भी यह भेद बन जाता है क्योंकि कारणभेदसे कार्यमें भेद देखा जाता है। ____ जब यह जीव सूक्ष्म साम्परायको प्राप्त होकर उसके अन्तिम समयमें स्थित होता है उस समय नाम और गोत्रकर्मका बन्ध आठ मुहूर्त प्रमाण होता है, वेदनीय कर्मका बन्ध बारह मुहर्त प्रमाण होता है, तीन घाति कोका बन्ध अन्तर्मुहुर्त प्रमाण होता है तथा मोहनीय कर्मका बन्ध नौवें गुणस्थानमें समाप्त होकर यहाँ चारों प्रकारके सत्कर्मका भो अभाव हो जाता है।

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