Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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पांचवीं भाष्यगाथामें बन्ध, संक्रम और उदयविषयक अल्पबहुत्वको बतलाते हुए कहा गया है कि संक्रामण प्रस्थापकके इन विषयोंका जैसा अल्पबहुत्व वहाँ कह आये हैं वैसा यहाँ जानना चाहिये।
छठी भाष्यगाथामें बतलाया है कि जो कर्मपुंज प्रयोगवश उदीरणाद्वारा उदयमें प्रविष्ट होता है उससे स्थितिका क्षय होकर उदयमें प्रविष्ट होनेवाला कर्मपुंज नियममे असंख्यातगुणा होता है।
सातवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि प्रयोगवश जो प्रदेशपुंज उदयावलिमें प्रविष्ट होता है वह प्रदेशपुंज उदयसमयसे लेकर उदयावलिके अन्तिम समय तक नियमसे असंख्यातगुणा होता है।
आठवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि यह क्षपक जिन अनन्त कृष्टियोंकी उदीरणा करता है उनमें अनदोर्यमान एक-एक संक्रमण करती है। तथा पहले जो कृष्टियाँ स्थितिक्षयसे उदयावलिमें प्रविष्ट होकर उदयको नहीं प्राप्त हईं हैं वे अनन्त कृष्टियाँ एक-एक करके स्थितिक्षयसे वेद्यमान मध्यम कृष्टिरूप होकर परिणमन करती हैं।
· नौवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि जितनी भी अनुभाग कृष्टियां नियमसे प्रयोगवश उदीरित होती हैं उनरूप होकर पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुईं अनुभाग कृष्टियाँ परिणमती हैं ।
दसवीं भाष्यगाथामें बतलाया है कि एक समय कम अन्तिम आवलिकी उत्कृष्ट और जघन्य असंख्यातवें भागप्रमाण जो अनुभाग कृष्टियाँ हैं वे सब असंख्यात बहुभागप्रमाण मध्यम कृष्टियोंके रूपसे नियमसे परिणम जाती हैं। .
आगे क्षपणासम्बन्धी चौथी मूल गाथामें बतलाया है कि विवक्षित संग्रह कृष्टि का वेदन करनेके बाद अन्य संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करता हुआ यह क्षपक उस पूर्व में वेदित संग्रहकृष्टिके शेष रहे भागको वेदन करता हुआ क्षय करता है या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करके क्षय करता है; क्या है ?
आगे उसका खुलासा करनेके लिये दो भाष्यगाथाएं आई हैं। उनमें से पहली भाष्यगाथामें बतलाया है कि पिछलो संग्रह कृष्टिके वेदन करनेके बाद जो भाग शेष बचता है उसे अन्य संग्रह कृष्टिमें नियमसे प्रयोगद्वारा संक्रमण करता है। परन्तु पिछली संग्रहकृष्टिका कितना भाग शेष बचता है इसकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया है कि पिछली संग्रह कृष्टिका दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धरूप द्रव्य शेष बचता है और उच्छिष्टावलिप्रमाण द्रव्य शेष बचता है। इस सब द्रव्यका अन्य संग्रहकृष्टि में नियमसे प्रयोगद्वारा संक्रमण करके क्षय करता है। यहाँ इतना
और विशेष जानना चाहिये कि नवकबन्धरूप सत्कर्मको अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रमित करके क्षय करता है और उच्छिष्टावलिप्रमाणद्रव्यको स्तिबुक संक्रमकेद्वारा उदयमें प्रवेशित करके क्षय करता है।
___ आगे दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि पूर्व में वेदी गई संग्रहकृष्टिके और इस समय वेदो जानेवाली संग्रहकृष्टिके सन्धिस्थानमें प्रथम संग्रहकृष्टि को एक समय कम एक आवलि उदयावलिमें प्रविष्ट होती है तथा जिस संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके इस समय वेदन करता है उसकी पूरी आवलि उदयावलिमें प्रविष्ट होती है । इस प्रकार दो आवलियाँ संक्रममें पाई जाती हैं । यह सन्धिस्थानको बात है । इसे छोड़कर शेष कालमें देखा जाय तो एक उदयावलि होती है क्योंकि उच्छिष्टावलिके गला देनेपर वहाँ और दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है।