Book Title: Kalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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कल्प
श्रीकल्प
सूत्रे ॥४१६॥
मञ्जरी
टीका
वा
विडम्बि-लम्बमान-शोभमान-कच-निचयां सुन्दर-बदन-कर-चरण-नयन-लावण्य रूप-यौवन-कलितां प्रतिपूर्णसर्वा-कोपाङ्ग-ललितां कर-चरणो-त्तमाङ्ग-प्रमुखा-ङ्गोपाङ्ग-सङ्गत-मणिगण-काश्चन-रत्न-रचिता-ऽऽभरण-किरणनाशिता-धतमसाम् विगतामाँ विमल-कान्ति-समुयोतित-दश-दिशां कमलाऽऽकर-कमल-निवासिनीं सकलजन-मनो-हृदय-प्रहादिनी भगवती विकसित-कमल-दला-क्षी लक्ष्मी पश्यति ॥मू०१८॥
टीका-'तओ पुण सा उच्चविराइय' इत्यादि। ततः सिंहस्वप्नदर्शनानन्तरं सा-त्रिशला पुनः चतुर्थस्वप्ने लक्ष्मी पश्यति, तत्र कीदृशी लक्ष्मीमित्याह-उच्चेत्यादि-उच्चविराजितस्थानकृताऽऽसनाम्-उच्चम्-उन्नतं विराजित-शोभितं च यत् स्थानं तत्र कृतम् आसनम् उपवेशनं यया ताम्-उच्चासनविराजमानाम्, पुनः-दिव्यगण को भी तिरस्कृत करने वाले, लम्बे और सुन्दर केश थे। वह सुन्दर मुख, हाथ, पैर और नेत्र वाली थी, तथा लावण्य, रूप और यौवन से सम्पन्न थी। प्रतिपूर्ण समस्त अंगोपांगों से सुन्दर थी। हाथों, पैरों,
और सिर आदि पर धारण किये हुए मणिगण, सुवर्ण एवं रत्नों के आभूषणों की किरणों से अन्धकार को हरण कर रही थी। वह क्रोध से रहित थी। अपनी निर्मल कान्ति से दशों दिशाओं को देदीप्यमान कर रही थी। कमलाकर (सरोवर ) के कमल की निवासिनी थी। सब जनों के हृदय में तीव्र आहाद उत्पन्न करने वाली थी। ऐसी लक्ष्मी को देखा ॥सू० १८॥
टीका का अर्थ-'तो पुण सा उच्चविराइय' इत्यादि । सिंह का स्वम देखने के पश्चात त्रिशला देवी ने चौथे स्वप्न में लक्ष्मी को देखा। वह लक्ष्मी कैसी थी? सो कहते हैं
ऊँचे और सुशोभित स्थान पर उसने अपना आसन बनाया था-अर्थात् उन्नत एवं सजावटदार છલ ભર્યા હતાં. સર્વાગે સુંદર હતાં. ધારણ કરેલા આભૂષણેથી, રાત્રીમાં પણ વગર દીવે અજવાલું આપી રહી હતી. લક્ષમી દેવી ઉપશાંત દેખાતાં હતાં. તેના રૂપ રંગ અને લાવણ્યથી દશે દિશાઓ ઉજજવલ બની રહી હતી. કમલ પર તેનું આસન હતું. સર્વજનેના હદયમાં, તેમની આકૃતિ, આહાદ આપી રહી હતી. વિકસિત કમલ પત્રનાં સમાન તેનાં નયને હતાં. આવા સ્વરૂપવાળી લક્ષમી દેવીને, ત્રિશળા રાણીએ, ચેથા સ્વપને જોયા. (સૂ૦૧૮)
न। मथ-'तओ पुण सा उच्चविराइय' त्याहि सिस्नु' नयां पछी शिक्षा वीस याथा સ્વપ્નમાં લક્ષ્મીને જોઈ. તે લક્ષમી કેવી હતી તે કહે છે–
ઊંચા અને સુશોભિત સ્થાન પર તેણે પિતાનું આસન બનાવ્યું હતું. એટલે કે તે ઉન્નત અને સજાવટવાળા
वणनम्,
॥४१६॥
શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧