Book Title: Kalpsutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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श्रीकल्प
___ १३-रयणरासिसुमिणे मूलम्-तो पुण सा वज-वेरुलिय-लोहियक्ख-मसारगल्ल-हंसगम्भ-जोइरयण-अंक-अंजण-जायरूवअंजणपुलग-रिट्ट-इंदनील-गोमेय--चंदप्पह-भुजमोयग-रुयग-सोगंधिग-पुलग-फडिग-मरगय-कक्केयण-सूरकंतचंदकंत-प्पवालप्पमुह-असवत्त-रयण-निगुरंव-प्फुरंत-कर-निकरणं विउलातलमलकुव्वंतं गगणमंडलं पगासयंतं, अञ्चंततुंगत्तणेण मेरुगिरि विडंबयंत, अजयणसंपत्तं दसदिसविगासिं पुन्व-पुण्ण-रासिमिव रयणरासि पासइ ॥१० २७।।
१३-रत्नराशिस्वप्नः छाया-ततः पुनः सा वज्र-वैडूर्य-लोहिताक्ष-मसारगल्ल-हंसगर्भ-ज्योतीरत्ना-का-ञ्जन-जातरूपा-जनपुलक-रिष्टे-न्द्रनील-गोमेद-चन्द्रप्रभ-भुजमोचक-रुचक-सौगन्धिक-पुलक-स्फटिक-मरकत-कर्केतन-सूर्यकान्तचन्द्रकान्त-अवाल-प्रमुखा-सपत्न-रत्ननिकुरम्ब-स्फुरत्कर-निकरण विपुलातलमलङ्कुर्वन्तं गगनमण्डलं प्रकाशयन्तम्
कल्प-- मञ्जरी टोका
॥४५८॥
रत्नराशि
स्वप्नवर्णनम्.
१३-रत्न-राशि का स्वप्न मूल का अर्थ-'तो पुण सा वज्जवेरुलिय' इत्यादि। तदनन्तर महारानी त्रिशला ने तेरहवें स्वप्न में वज्र , वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, ज्योतिरत्न, अंक, अंजन, जातरूप, अंजनपुलक, रिष्ट, इन्द्रनील, गोमेद, चन्द्रप्रभ, भुजमोचक, रुचक, सौगंधिक, पुलक, स्फटिक, मरकत, कर्केतन, सूर्यकान्त, चन्द्रकान्त और प्रवाल आदि अनुपम रत्नों के समूह की स्फुरायमान किरणों के समुदाय से पृथ्वी-तल को अलंकृत करने वाली, आकाशमंडल में प्रकाश करनेवाली, अत्यन्त ऊँची होने से मेरु पर्वत को भी मात कर
१३ २लाशिनु स्वप्न. भूगन। मथ-'तओ पुण सा वज्जवेरुलिय' त्याहि तेरमा २१ मध्ये शिक्षा सामे, पी, पेय, साहिताक्ष, भसास, ससम, ज्योतिरत्न, ४, Aarन, ३५, ४, २, छन्द्रनीस, गोमेह, यन्द्रप्रल, सुभाय, रुय, सौगापि, yes, २३४, भ२४त, तन, सूर्यजन्त, सन्त, प्रवास, विरे અનુપમ રત્નની રાશિ જોઈ. આ રત્નોની રાશિથી પૃથ્વીતલ, સુશોભિત લાગતું. આકાશ-મંડળ તેજોમય જણાતું, આ રત્નરાશિ, ઘણી ઉંચી હોવાને લીધે, મેરુ પર્વતને પણ મહાત કરવાવાળી હતી. અનાયાસ–વગર પરિ
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॥४५८॥
શ્રી કલ્પ સૂત્ર: ૦૧