Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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यद्यपि काकासाहेब ने चारों भाषाओं में साहित्य-सृष्टि की है, तथापि जहां तक प्रचार का सम्बन्ध है, सबसे अधिक प्रचार उन्होंने हिन्दी का ही किया है। भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न भागों की जितनी यात्राएं हिन्दी के प्रचारार्थ उन्होंने की हैं उतनी किसी अन्य व्यक्ति ने न की होंगी। हिन्दीवालों का कर्तव्य था कि वे काकासाहेब को साहित्य-सम्मेलन का सभापति बना देते, पर हम लोगों ने इस कर्त्तव्य का पालन नहीं किया और पुरस्कार के रूप में काकासाहेब को हिन्दीवालों के कटाक्ष भी मिले।
एक बार काकासाहेब ने कह दिया था कि हिन्दी के सबसे बड़े दुश्मन हिन्दीवाले ही होंगे। यह बात कितने ही हिन्दीवालों को बहुत खलती थी। एक बात दरअसल यह है कि काकासाहेब अपने हृदय के विचारों को छिपाते नहीं और दो टूक बात कह देना उनके स्वभाव का अंग ही बन चुका है। अपने अनुभव की दोतीन बातें मैं भी सुना दूं।
हम लोग टीकमगढ़ में प्रायः कहा करते थे कि उषा-अनिरुद्ध का प्रेम-मिलन कुण्डेश्वर में ही हुआ। अकस्मात काकासाहेब कुण्डेश्वर पधारे और अपनी गर्वोक्ति हम लोगों ने काकासाहेब के सामने भी कह दी। उसे सुनते ही उन्होंने तुरन्त कहा, "निराधार बात का प्रचार आप क्यों करते हैं ? उषा-अनिरुद्ध का मिलन तो किसी दूसरे प्रदेश में हुआ था।" अकाट्य प्रमाण देकर काकासाहेब ने हमारी कल्पना के महल को ढा दिया। उससे हमारे हृदय को धक्का भी पहुंचा। दूसरी बात मेरी निजी है। गांधी भवन बन जाने पर विंध्य प्रदेश सरकार से मुझे एक जीप मिली हुई थी। चूंकि हमारा स्थान टीकमगढ़ से साढ़े तीन मील दूर था, वह जीप प्राय: काम में आती थी। उसे टीकमगढ़ के कलक्टरसाहब ने हमसे ले लिया। यह बात शिकायत के तौर पर मैंने काकासाहेब से कही। काकासाहेब ने तुरन्त ही कहा, "आप तो साबरमती आश्रम की शिक्षा बिलकुल ही भूल गये। जिसके पैर मजबूत हों, उसे जीप की क्या जरूरत ?" बात काकासाहेब ने बिलकुल ठीक ही कही थी, पर उस समय मुझे वह बुरी लगी। बातचीत के सिलसिले में मेरे मुंह से निकल गया, "बापू के मूल पत्रों पर जो उन्होंने मुझे, पं० तोताराम जी को या दीनबन्धु एण्ड्यूज को भेजे थे, उनपर मेरा पूरा अधिकार है और यदि मैं चाहूं तो उन्हें लुई फिशर (एक अमरीकी पत्रकार) को दे सकता हूं।" काकासाहेब को यह कल्पना आपत्तिजनक जंची और उन्होंने मुझे डांट ही पिला दी। इस बात का जिक्र मैंने मीराबहन से किया तो उन्होंने मेरा समर्थन किया और कहा, "मैं तो अपने पास इकट्ठ बापू के पत्रों को कई स्थानों में बांट देना चाहती हूंभारत, विलायत, यूरोप।" आगे चलकर मैंने अपना पत्र-संग्रह भारतीय अभिलेखागार, नई दिल्ली को ही दिया। काकासाहेब उन पत्रों की नकल लेने के लिए ही टीकमगढ़ में आये थे।
काकासाहेब का स्वागत-सम्मान टीकमगढ़ की एक सभा में हुआ और वहां उनका परिचय मैंने ही कराया था। शायद परिचय देते समय कोई तिथि या तथ्य की बात मुझसे गलत हो गयी। काकासाहेब ने अपने भाषण में कहा, "मैंने अपना संक्षिप्त परिचय स्वयं ही छपा दिया है, क्योंकि आप जैसी भूलें बहतों से होती रहती हैं।"
एक व्यक्तिगत घटना और भी सुना दूं। जब मैं कांग्रेस का प्रतिनिधि होकर पूर्व अफ्रीका जा रहा था, मैंने काकासाहेब की सेवा में उपस्थित होकर उनसे प्रवासी भारतीयों के बारे में कुछ बातचीत की। उस इण्टरव्यू में काकासाहेब ने यह परामर्श दिया कि कांग्रेस में एक प्रवासी विभाग कायम होना चाहिए। मैंने काकासाहेब के इस परामर्श को ध्यान में रखकर इस विषय पर आन्दोलन ही प्रारम्भ कर दिया और कानपुर कांग्रेस के अवसर पर उसका प्रस्ताव भी उपस्थित जनता के सामने रखा। महात्मा गांधी से जब मैंने यह बात कही कि मैं प्रस्ताव रखने वाला हूं तो उन्होंने तुरन्त ही कहा, "मैं तो तुम्हारे प्रस्ताव का विरोध करूंगा।" मैंने कहा, "आपने विरोध किया तो मेरा प्रस्ताव फेल ही हो जायेगा। आप मुझे प्रयोग तो कर लेने दें।" बापू मेरे आग्रह
२८ / समन्वय के साधक