Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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उनका प्रेममय स्पर्श
मीआ और क्लाउस'
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'काका' - 'चाचा' शब्दों से रिश्तेदारी, कौटुंबिक संबंध का ख्याल आता है । किन्तु हम लोगों के बारे में नहीं, क्योंकि काकासाहेब, क्लाउस और मैं - हमारा सामान्य शारीरिक रिश्ता हो नहीं सकता। भारत-जर्मनी - कैनेडा ऐसे विविध देशों के लोगों को निकट लानेवाली सिवाय अध्यात्म के कौन- सी चीज हो सकती है ? और उच्च आध्यात्मिक आकर्षण की शक्ति ऐसी होती है कि हम बिना काकासाहेब के बारे में कुछ भी जाने और हमारे देश में उनके बारे में बिना कुछ भी सुने हम उनकी ओर आकर्षित गये – जैसे पतंगा ज्वाला की ओर खिचा चला आता है । हमको उस ज्वालां की आवश्यकता थी, उस ज्वाला के साथ प्रज्ज्वलित होकर ' काकासाहेब' नामक चिराग से प्रकाश प्राप्त करना था ।
रवीन्द्रनाथ 'ठाकुर और महात्मा गांधी की रचनाएं पढ़कर हमारे दिल में भारत के प्रति प्रेम और आदर उत्पन्न हुआ था और काकासाहेब में इन दोनों महान पुरुषों के विचारों का समन्वय हमें मिल गया। हमारी प्रथम भेंट में ही काकासाहेब ने कहा, “एक ने मुझे सौन्दर्य सिखाया और दूसरे ने सत्य – सत्याग्रह द्वारा ।"
श्री काकासाहेब का परिचय हमें सर्वप्रथम डा० माचवे ने कराया। उनके प्रति हम सदा कृतज्ञ रहेंगे । किन्तु काकासाहेब के साथ हमारा सच्चा मिलन तो तब हुआ जब हम दूसरी बार भारत गये सन् १९७४ में । सन् १९६९ से हमारा पत्र-व्यवहार चालू था, काकासाहेब के साथ और सरोज बहन के साथ, जो बाद में हमारी बहुत प्यारी बहन बनी, जैसे काकासाहेब हमारे पिता और गुरु बने ।
इसलिए १९७४ में दिल्ली आते ही हम सबसे पहले सन्निधि, राजघाट गये, जहां हमारे प्रियजन हमारी राह देख रहे थे और जहां निजी परिवार के सदस्य के रूप में हमारा स्वागत किया गया। एक सप्ताह से अधिक समय हमने काकासाहेब के पलंग के पास बैठकर सुनने में और प्रश्नोत्तरी करने में बिताया। ऐसा कभी नहीं लगता था कि काकासाहेब कुछ उपदेश दे रहे हैं अथवा कुछ सिखा रहे हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर हम स्वयं ढूंढ लें, ऐसा वातावरण वह तैयार कर देते थे। तब हम समझ गये कि काकासाहेब चाहते हैं कि हर व्यक्ति को अपना रास्ता और अपना सत्य आप ही खोज लेना चाहिए ।
प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व के लिए काकासाहेब को इतना आदर था कि एक बार जब क्लाउस ने हमारा वार्तालाप टेप करने की अनुमति मांगी तो उन्होंने उत्तर दिया, “आपको 'टेप' करना हो तो मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु मुझे उसमें, मैं कहूं, खुशी नहीं होगी । 'खुशी' शब्द मैंने सोचकर इस्तेमाल किया है मुझे इस बात में खुशी होगी कि मैं कहूं सो आप सुनें, आत्मसात् करें और फिर अपने ही शब्दों में, अपने तरीके से, दूसरों से वह कहें। ऐसा करने में आप मेरी बात को एक नयी गहराई प्रदान करेंगे। ऐसा करने के लिए मूल संदेश के प्रति निष्ठा जरूरी है ही, किन्तु मैंने भी तो यह पैगाम किसी और से या कई औरों से सुना । उस पर गहराई से मनन-चिंतन करने के बाद मैं अपनी दृष्टि से वह आपको दे रहा हूं। आपको भी वैसा ही करना है । तब तक आपने सुने हुए शब्दों के अन्दर की आत्मा को पकड़ लिया होगा। इससे इस विचार को नयी समृद्धि मिलेगी ।"
१. कैनेडा के फोटोग्राफर दंपति । पति जर्मन, पत्नी फ्रेन्च । दोनों की आध्यात्मिक जीवन की आकांक्षा उत्कट है ।
-सम्पा०
व्यक्तित्व : संस्मरण / ३३