Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

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Page 255
________________ हमें मजा आता था । अन्धकार का थोड़ा-सा मनन करने के पहले अन्धकार के विषय में थोड़ा-सा उठावदार अनुभव कह दूं। जिस दिन उपनिषद् में प्रार्थना पढ़ी - 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' - मुझे अन्धेरे में से प्रकाश की तरफ ले चलो — उस समय अन्धकार और प्रकाश ये जगत में बड़े सर्वव्यापी और परस्पर भिन्न जीवनतत्त्व हैं, यह बात ध्यान में आकर प्रकाश के प्रति भक्ति दुगुनी हुई । लेकिन इसके साथ ही साथ अंधकार भी एक व्यापक और करीब-करीब सार्वभौम तत्त्व है, इसकी कल्पना स्पष्ट हो जाने के कारण अंधकार का महत्व भी समझ में आया । आध्यात्मिक दृष्टि से हम अज्ञान, को अन्धकार कहते हैं । समस्त जीवन का विचार करते समय जगत का अन्धकार और हृदयाकाश का अज्ञान ये भिन्न नहीं हैं, एक ही हैं, ऐसा उस समय प्रतीत हुआ । एक बार एक कुटुम्ब पर दारुण प्रसंग आया था और घर के सब बड़े लोग शोक में डूब गये थे। यह देखकर मन में विचार आया कि ईश्वर की कितनी बड़ी कृपा है कि इन बच्चों को कुटुम्ब पर आये हुए भीषण संकट की कल्पना ही नहीं हो रही है। अगर उन्हें सच्ची परिस्थिति की कल्पना हो सकती तो उनके कोमल हृदय पर आघात होने से उनके प्राण ही निकल जाते । मुर्गी के बच्चों का आकार बनने से पहले जिस प्रकार उन्हें अण्डे के कवच का रक्षण चाहिए, उसी प्रकार मन पक्का हो जाय तबतक के लिए बच्चों को ईश्वर ने अज्ञान का यह कवच दिया है । यह उसकी बड़ी कृपा ही है । संसार में सार-वस्तु क्या है और असार वस्तु क्या है, इसका ज्ञान अगर संसार के सब लोगों को एक ही समय, एक ही तरह हो जाय तो जगत् का यह घटना चक्र ही रुक जाएगा। मनुष्य असार को सार समझकर चलता है, इसलिए उसे जीने में आनन्द आता है, और बड़े जोश के साथ वह जीता है और कर्म करता है। और, ऐसा भी नहीं कि ये सब कर्म अच्छे ही होते हैं। मनुष्य कभी-कभी जीवन-भर एक-दूसरे से द्वेष करता है । राष्ट्र सदियों तक बैर चलाते हैं और महायुद्ध करके संहार का महोत्सव करते हैं । यह सब मूल में अज्ञान की ही चेष्टाएं हैं । इसीलिए मनुष्य ने प्राचीनकाल से प्रार्थना चला रखी है- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय ।' जब हम तत्वदर्शी होकर अथवा तत्वजिज्ञासु जीवन का विचार करते हैं तब देख सकते हैं कि जीवन और मृत्यु दोनों परस्परपूरक, परस्परपोषक और एक सरीले आवश्यक तत्त्व हैं। केवल अज्ञान और ज्ञान की ही यह बात नहीं है । अंधकार और प्रकाश का भी ऐसा ही है । अज्ञान यानी कम ज्ञान, अपूर्ण ज्ञान, धुंधला ज्ञान, भ्रमयुक्त ज्ञान, भ्रम से मिला हुआ ज्ञान, यही अज्ञान का अर्थ होता है । इसी तरह अंधकार का भी कम प्रकाश, अपूर्ण प्रकाश ऐसा ही अर्थ करना चाहिए। रात को जहां हमें नहीं दिखाई देता वहां बिल्ली को दीखता है और वह बिना चूके चूहे पर झपट्टा मारती है, तब तो हमारे लिए अपूर्ण प्रकाश है वह बिल्ली के लिए पूर्ण है। इसके विपरीत दिन का प्रकाश बिल्ली और बाघ के लिए आयश्यकता से अधिक होने के कारण उनकी आंखें मिचमिचा जावें ऐसी प्रकृति की व्यवस्था है। फोटो खींचने के कैमरे की आंख का सुराख जिस प्रकार छोटा-बड़ा किया जा सकता है उसी प्रकार कुछ प्राणियों की आंखों का 'डायफेन' प्रकाश की मात्रा के मुताबिक कम-ज्यादा किया जा सकता है। अगर ऐसा न हो सके तो उन प्राणियों को अतिप्रकाश का अंधेरा या अंधापन सहन करना पड़ता। इसीलिए उलूक को दिवाभीत या दिवान्ध कहते हैं। आवाज के बारे में भी यही बात है। आवाज के भी सूक्ष्म आन्दोलन होते हैं। प्रति संकण्ड अमुक आन्दोलन से कम आन्दोलन हों तो आवाज सुनाई नहीं देती। चार हजार या दस हजार आन्दोलन से ज्यादा आन्दोलन एक सैकण्ड में होने लगे तो भी आवाज एकदम गुम हो जाती है। अंधकार का भी ऐसा ही क्यों न हो ? गीता में तो कहा है विचार चुनी हुई रचनाएं / २४१

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