Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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है | श्री गुरुदेव से यह सब बातें कहने की किसी की हिम्मत नहीं थी । गुरुदेव चाहे जितने मिलनसार हों, तो भी अंत में जाकर 'अरिस्टोक्रेट' ( उच्च वर्गीय) ही तो ठहरे ! हम उनसे कुछ कहने गये और कहीं उन्होंने डांट दिया तो ?
१९१८ के जनवरी या फरवरी के दिन होंगे। कर्मवीर मोहनदास कर्मचन्द गांधी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे हुए थे । वह शान्तिनिकेतन' आनेवाले थे। गांधीजी की फिनिक्स पार्टी कब की शान्तिनिकेतन में बस चुकी थी । चार्ली एंड्रयूज अपने प्यारे 'मोहन' के भाई बन चुके थे और इसलिए फिनिक्स पार्टी के वे दादा थे । जब गांधीजी शान्तिनिकेतत आये तब शान्तिनिकेतन का उत्साह तो अक्षय तृतीया के सागर के जैसा उमड़ रहा था । श्री क्षितिमोहन सेन ने उस दिन उपवास रखा था। उनकी यह प्रतिज्ञा थी कि भारतमाता के इस महान पुत्र का स्वागतोत्सव पूर्णतया सम्पन्न होने के बाद ही मैं खाऊंगा। गांधीजी शाम को या रात को आये और दूसरे दिन की प्रभात होने के पहले ही वे शान्तिनिकेतन के घर के हो गये। उनसे बातें करने में हमें तनिक भी संकोच नहीं होता था। दुनिया भर के अनेक सवालों की चर्चा करने के बाद श्री एंड्रयूज की चर्चा भी हमने कर ली। प्रतिनिधि मैं ही था। मैंने गांधीजी से कहा कि आप श्री एंड्रयूज को अपना भाई समझते हैं । परन्तु उनके बारे में हमारी राय कुछ अलग है। गांधीजी ने तुरन्त पूछा कि उसमें क्या बुराई है ? वे अंग्रेज तो हैं ही । फिर, भला वे इंग्लैंड का हित क्यों न चाहें ।
मैं कुछ शर्मिन्दा सा हो गया। फिर मैंने कहा, "वे जैसे अपने को भारतहितैषी बताते हैं, वैसे वे नहीं हैं। शायद जाली आदमी हैं।"
गांधीजी ने कहा, "मेरा अनुभव ऐसा नहीं है। एंड्रयूज एक नेक आदमी हैं और नेकीपरस्त भी हैं।" अब तो मुझे दिल की पूरी-पूरी बात कहनी ही पड़ी। "देखिये बापूजी, आप तो बड़े आदमी हैं । जो लोग आपके पास आते हैं, वे अपनी ढाल की उजली बाजू ही आपकी तरफ रखते हैं । हम छोटे लोग ही उसे सब तरफ से देख सकते हैं। इसलिए आपको हमारे जैसों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए ।"
गांधीजी ने तुरन्त कहा, "यह तो हो सकता है । किन्तु मैं भी आदमियों को पहचानने का दावा कर सकता हूं । कोई आदमी मुझे आसानी से धोखा नहीं दे सकता। और एंड्रयूज तो मेरे इतने नजदीक आ गये हैं कि मैं उन्हें नहीं पहचानूं, यह तो नामुमकिन है। हां, श्री एंड्रयूज हैं तो अंग्रेज । अंग्रेज जहां जायगा, अपना प्रभुत्व जमाये बिना नहीं रहेगा। उसके स्वभाव की यह खूबी समझकर आपको उसे बरदाश्त करना चाहिए। हैं और पुण्य पुरुष हैं। श्री एंड्रयूज को हिंदुस्तान की सेवा द्वारा इंग्लैंड की सच्ची सेवा करनी है । वे इंग्लैंड को सच्चे हृदय से चाहते हैं इसलिए इंग्लैंड के हाथों हिन्दुस्तान के प्रति होनेवाला अन्याय उनके लिए असह्य हो जाता है । अगर वे इंग्लैंड को नहीं चाहते तो इस प्रकार हिन्दुस्तान की सेवा करने के लिए उद्यत नहीं होते ।
"तुम
'जो उन पर इल्जाम लगा रहे हो, उसके लिए तुम्हें सबूत देना होगा ।"
कुछ सोच-विचार कर दो-एक टूटे-फूटे सबूत पेश कर दिये । किन्तु गांधीजी के दिल पर उनका कुछ भी असर नहीं हुआ ।
उस दिन मैं बड़ा अस्वस्थ होकर अपने कमरे में लौटा। गांधीजी ने जो दृष्टि बतायी यह उन दिनों हमारे पास थी ही नहीं । हम रावण और विभीषण को ही पहचानते थे । यहां तो शुद्ध मानवता को पहचानना था। मैंने गांधीजी से इतना ही कहा कि "आपने एक नई दृष्टि बतायी है । उस दृष्टि से श्री एंड्रयूज की तरफ देखने की कोशिश करूंगा और अपने मत को बार-बार परखता रहूंगा। इस वक्त मैं इतना ही कह सकता हूं ' मैंने मन में बहुत कुछ सोचा। श्री एंड्रयूज से बहुत परिचय बढ़ाया । किन्तु उनसे कभी यह नहीं कहा
२७० / समन्वय के साधक
मैंने