Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

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Page 302
________________ बंबई बीस तारीख शाम को सवा पांच बजे पहुंचने वाले थे, २१ की सुबह सूर्योदय के साथ हमारा भी बंबई में उदय होगा। रेलगाड़ी की मेहमानगिरी एक रात की जगह दो-रात चखनी पड़ेगी। और चि० सरोज तो इकौना से लखनऊ होकर आयी थी, उसको रेल में तीन रातें व्यतीत करने का पुण्य मिलेगा । इस सारे रेल संकट का एक लाभ यह हुआ चि० मृणालिनी देसाई का मराठी में लिखा हुआ उपन्यासात्मक गांधी चरित्र पढ़ सका। चित्त को इकौना के नवनिर्मित आध्यात्मिक आश्रम के बारे में जानने की इच्छा थी, और चि० सरोज को अपना जवाब लिखकर बताना पड़ता था अच्छा है, चि० सरोज को लिखने का आलस्य नहीं है। बंबई में कान का कुछ इलाज हो सका तो गनीमत है, नहीं तो मुझे अपना आयंदा का कार्यक्रम नये सिरे से बदलना होगा। जब से कान की शक्ति क्षीण हुई, मैंने तय किया कि किसी सभा में अध्यक्ष- स्थान नहीं लूंगा (उद्घाटन का भाषण करना आसान है। अध्यक्ष को सभा का संचालन करने का होता है। लोग क्या बोलते हैं, वही जो सुन नहीं सकता, संचालन क्या करेगा ?) किसी समिति का सदस्य बनने का भी मैंने छोड़ दिया है, क्योंकि समिति में एक-दूसरे के विचार सुनकर अपनी राय देने की या बदलने की होती है । आजतक मिलने आनेवाले लोगों को बिठाकर उनकी बातें सुन सकता था, अनेक कार्यकर्ता और संस्थाओं के प्रतिनिधि मिलने आते थे, उनसे विचार-विनिमय होता था। इसमें मेरी जानकारी अद्यतन रहती थी । नये गये सवालों का देश-काल का हिसाब करके हल ढूंढना पड़ता था। अब कुदरत ने नसीहत दी है कि "आजतक बहुत सुना । उतना एक जन्म के लिए और सवालों के चिंतन करने के लिए काफी है । जितनी हो सके, उतनी सेवा करो और परलोक का भी चिंतन करो।" मैंने इस लोक का चिंतन करना पर्याप्त माना है । अध्यात्म कहता है कि "मनुष्य हो, अनंत काल का भी चिंतन करो।" मैं मानता हूं कि इस लोक के लिए भूतकाल की जानकारी बढ़ाना, वर्तमान काल को पहचानना और भविष्य काल के लिए तैयारी करना काफी है और चितन सर्व कल्याणकारी है या नहीं, इसकी कसौटी के लिए अनंत काल का चितन पर्याप्त है, फिर परलोक का चिंतन किसलिए करूं ? परलोक के बारे में बचपन से लोगों से बहुत सुनता आया हूं। पुराणों में सब धर्मों के पुराणों में काफी पढ़ लिया है, लेकिन अब उसके बारे में तनिक भी जिज्ञासा नहीं रही। मैं जन्म-परम्परा में मानता हूं। जन्म-परम्परा खत्म होने पर ही मोक्ष मिलता है, ऐसा भी विश्वास नहीं है। संत तुकाराम ने भगवान से यही कहा था, "तुका म्हणे गर्भवासी सुखे घालावे आम्हासी ।" इंद्रलोक, चन्द्रलोक आदि सब वर्णन काल्पनिक हैं । पुनर्जन्म से मैं डरता नहीं। इसलिए परलोक की चिन्ता नहीं करता। सुनने की शक्ति क्षीण हुई तो बेहतर तटस्थ भाव से चिंतन चालू रहेगा, और जब तक प्राण हैं, सेवा करने की शक्ति नष्ट होनेवाली नहीं, यह विश्वास है। ट्रेन ने कृपा करके अच्छा अवकाश दिया । तटस्थ भाव से चिंतन कर रहा हूं । जिनकी नसीहत से जीवन कृतार्थ करने की प्रेरणा मिली, वे संत भी सहज समाधि तक पहुंचने के बाद विश्व कल्याण का चिंतन करते ही थे विकास और सेवा का अन्त कभी होता ही नहीं । काका के सप्रेम शुभाशिष २८८ / समन्वय के साधक

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