Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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संयम-शक्ति भी बढ़े, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो और सब इष्ट अनुभव लेने की उनकी क्षमता सूक्ष्म होकर दीर्घकाल तक टिके; सहकार, त्याग और बलिदान की उनकी वृत्तियां मारी न जायें,-ऐसी स्थिति को मैं इष्टतम स्तर मानता हूं।
ऐसे इष्टतम जीवन-स्तर को संभालने की दृष्टि से संस्कृति का विकास करना चाहिए। सामान्यतः तो स्त्री घर को संभाले और बच्चों को अच्छे संस्कार दे, यह योग्य ही है। सर्वोच्च कीर्ति, अधिकार और स्वतंत्रता उसमें समाये हुए है । जानवरों की मादा जिस तरह अपने बच्चों को देखती है, उसी तरह बच्चों को बड़े करना, ऐसा मैं नहीं कहता और फूहड़ की तरह घर को चलावे यह भी नहीं कहता। किन्तु अद्यतन समाजशास्त्र, सुप्रजा-निर्माण-शास्त्र, आरोग्यशास्त्र, आहारशास्त्र, धर्मशास्त्र, नृवंशशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र आदि सुसंस्कृत जीवन के शास्त्रों का जिसमें विनियोग होता है ऐसा गृह-संस्था और कुटुंब-संस्था चला सके, वह राष्ट्र-निर्मात्री भी है और समाज की आधार स्तंभ भी है; संस्कृति रक्षक तो वह है ही। राज्य संस्था चलाने की अपेक्षा कुटुम्ब-संस्था चलाने में अधिक बड़प्पन है।
मेरी राय से, स्त्री को आजीविका के लिए अलग काम न लेकर पति को उसके काम में ही सहायक होना चाहिए । पारिवारिक वायुमंडल के लिए भी यहां इष्ट है। यदि अलग काम करना ही हो, तो ऐसा काम पसंद करना चाहिए, जिसमें गह-संचालन में, बालकों की परवरिश में, और प्रसव के बाद की विश्रान्ति में, बाधा न आ पाये । समाज को भी कानून और रिवाज द्वारा ऐसी व्यवस्था कर ही देनी चाहिए, जिससे ऊपर के तीन कर्त्तव्य सुरक्षित रहें।
____संतति-नियामक साधनों की बातें बहुत चल रही हैं। माना जाता है कि इन साधनों से संभोगप्रवृत्ति व्यवस्थित होती है, किन्तु असंयमी मनुष्य-जाति गर्भाधान-निरोधी साधन मिलने से अधिक असंयमी बनेगी, व्यभिचार बढ़ जायेगा, और फलतः प्रेम-जीवन धीरे-धीरे छिछला, दंभी और असंस्कारी होता जायेगा । यदि प्रेम-जीवन का प्रश्न नहीं होता, तो संभोग-जीवन मात्र प्राणीशास्त्र का सवाल बन जाता। जब निष्ठा, वफादारी, गहराई और आत्म-बलिदान या त्याग के तत्त्व आते हैं तभी प्रेम-जीवन समृद्धि बनता है, उसमें अधिक-से-अधिक जीवन-रस मिलता है और बालकों के लिए उत्तमोत्तम विरासत तैयार होती है। जहां यह सब नहीं है, वहां नंगे स्वार्थ का जोर ही बढ़ेगा, दंभ और कृत्रिमता सामान्य और समाज-मान्य बनेंगे और जीवन में सुवास का नामोनिशान नहीं रहेगा। एक-दूसरे में ओतप्रोत होना—यही है लग्न । संभोग-जीवन और प्रेम-जीवन एक ही दिशा में बहते रहे और प्रेम जीवन के आदर्श स्वीकारकर, संभोग-जीवन मर्यादित हो जाये, यही है लग्न-जीवन का सार-सर्वस्व ।
___ अब संतति-नियमन के साधन काम में लेने के बारे में :
भूख और नींद मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। इनके बिना मनुष्य जी नहीं सकता। काम-तृप्ति के बिना मनुष्य जी सकता है। इतना ही नहीं, किन्तु ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक नियमों का पालन करके मनुष्य संयम बढ़ाता जाये तो उसकी प्रसन्नता टिकती है, यौवन दीर्घकाल तक रहता है, बुद्धि अधिक तीव्र और शुद्ध होती है, वह निष्पक्ष होता जाता है और उसकी सेवाशक्ति अनेक गुनी बढ़ती है । मन में तो विषयों का सेवन करते रहना और बाहर से अर्थात् केवल बाह्याचार में कामतृप्ति को त्याग देना, उससे अनेक तरह की विकृतियां पैदा होती हैं और नुकसान भी होता है। सबसे बड़ा नुकसान तो यह है कि कला की कल्पना ही विकृत हो जाती है। काम-प्रेरणा में से प्रेम-जीवन को यदि पुष्टि मिले तो संभोग-जीवन व्यवस्थित भी होता है और संतति को संस्कार की पंजी भी प्राप्त होती है। जगत में यदि शान्ति संभालनी है तो संभोगजीवन को हमेशा प्रेमजीवन के पीछे-पीछे चलना चाहिए, उसका अधिकार स्वामित्व में रहना चाहिए। ऐसा न रहा तो बच्चों के संस्कार असामाजिक हो जायेंगे और उसी में से वर्ग विग्रह, वर्गद्वेष,स्वार्थ, दंभ, विलासिता,
२९८ / समन्वय के साधक