Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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पदम चंद्र सिंघी को
काकासाहब कालेलकर एम० पी० ८१, साऊथ ऐवेन्यू, नई दिल्ली-१
१४-६-५६ प्रिय पदम,
तुम्हारा निर्मल और सविस्तार पत्र ता० १०-६ का मिला। प्रथम विचार हुआ कि वही चि. लीला को पढ़ने भेज दूं । लेकिन सोचा कि डाक में कहीं गुम हो जाए, इससे बेहतर यही होगा कि जब वह यहां आएगी तब उसे वह पढ़ने दं। आज उसके लिए एक पत्र भेजता है, वह उसे देना।
जीवन में जो घटनाएं घटती हैं, वे सुखकर हों या दु:खकर, जीवन का अनुभव समृद्ध करने के लिए होती है । मानसिक दुःख और वेदना के द्वारा भी जीवन समृद्ध होता है । यह साक्षात्कार जिसे हुआ, वह कभी भी मायूस नहीं होगा।
मुझे याद नहीं कि हमारे बाबू कामत को तुम मिले हो या नहीं। उसके लिए जीवन-साथी पसंद करने में मेरा हाथ था। उसने जो सहन किया, वह तुम्हारे दुःख से सौ गुना अधिक था, लेकिन उसने हमेशा उससे आध्यात्मिक लाभ ही उठाया। आज वह श्री विनोबा के कार्य में मग्न है।
हम लोग ता० १७ की रात को यहां से निकल सिक्किम की ओर जाएंगे और पहली अक्तूबर तक यहां वापस लौटेंगे। उसके बाद १० अक्तूबर के आसपास किसी समय बम्बई जाएंगे।
जब हो सके, तुम दोनों एक दफे आकर मिलो, और इससे भी अधिक महत्त्व की बात यह है कि तुम दोनों निश्चय करो कि हमेशा साथ ही रहना है। पढ़ाई, इम्तहान, सब गौण है । परिस्थितिवश अलग रहने की बात मैं समझ सकता हूं, लेकिन सबसे बलवत्तर परिस्थिति कहती है कि इन दिनों साथ ही रहो। नटवर ने श्री गुप्ता को कहकर सर्टिफिकेट भेजने का प्रबंध किया था, सो मिला ही होगा।
काका के सप्रेम शुभाशिष
(२)
"सन्निधि" राजघाट, नई दिल्ली-१
२६-१०-६३ प्रिय पदम,
ता० २२-१० का पत्र मिला। मुनि जिनविजयजी मेरे पुराने स्नेही और साथी हैं, लेकिन मुझे शक है कि श्री पुरोहित जी द्वारा इकट्ठा किया हुआ साहित्य वे भेज नहीं सकेगे। पुरातत्व मन्दिर अपना मसाला कभी बाहर नहीं भेजते।
१. पिछड़े तथा दखिल वर्ग संबंधी कार्य में काकासाहेब के सहयोगी।
३०४/ समन्वय के साधक