Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

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Page 310
________________ हमारे जमाने में न जाने कौन-सी पनोती लगी थी कि संगीत और नृत्यकला दोनों के बारे में राष्ट्रीय अभिरुचि की निंदा ही प्रगति मानी जाती थी। . साबरमती आश्रम में हमने दरबार गोपालदास और उनकी दांडीया-रास की मंडली को आमंत्रित किया, तब समाज-सुधारकों ने हम पर टीकाएं की थीं। पर आश्रम में संयमी जीव के सामने कोई भी न बोल सकता था। फिर तो हमारे अप्पासाहब पटवर्धन भी "गडया नो कृष्ण गडी अपुल्या राजा कपुरे चा जाला" यह गोपी गीत गाकर नाचने लगे। तत्पश्चात् सब ठीक होने लगा। अपने देश का जीवन पहले से ही ऐसा कला-विहीन न था। मैं जब बहुत छोटा था, तब सतारा में, पुणे में और जगह-जगह लड़कियां घूमती बड़ी पींगा खेलतीं और जोरदार लड़कियां जब जपूरजा का नाच नाचतीं। तब ऐसा लगता, जैसे आंगन उखड़ जायेगा। मेरी माता जी निरक्षर थीं, पर एक-एक पंक्ति याद करके कितने ही पौराणिक और लोकगीत कंठस्थ किये थे और मंदिर के उत्सव और त्योहार तो धर्म-जीवन और लोक-जीवन के बीच अभेद सिद्ध कर देते। पुराने काल में जो प्राप्त किया जाता था, वह अब केलवणी के द्वारा जीवंत करना रहा। काका के सप्रेमशुभाशिष बबनी को नई दिल्ली २-७-६० चि० प्यारी बबनी, तुम्हारे पत्र में गुजराती काव्यों के उद्धरण आते हैं, यह सुंदर है। किन्तु जब अंग्रेजी के फिकरे आते है तब मन को बात चुभती है कि बीच-बीच में संस्कृत के सुवाक्य नहीं हैं । मुझे कहना इतना ही है कि जिस दिलचस्पी से तुम अंग्रेजी पढ़ती हो, उसी दिलचस्पी से संस्कृत साहित्य में भी अवगाहन करने का मौका हासिलकर लेना। संस्कृत काव्यों की रसिकता उच्च कोटि की है और वह पूरी काव्य राशि अपने स्वदेश के विषय में, स्वदेश की नदियों, पर्वत मालाओं और नगरियों के विषय में, तीर्थस्थानों के विषय में, यहां की ऋतुओं के विषय में, यहां के पशु-पक्षियों से विषय में होती है। इसलिए उनके साथ तुरंत ही अनुभूति का तादात्म्य उत्पन्न होता है। और जब संस्कृत कवि मानवी जीवन, उसकी भावनाएं, प्रेम-भावना या भक्तिभावना को छेड़ देते हैं, तब तो अपने पूर्वजों के लाखों बरस के पुरुषार्थ का और चिंतन की प्रतिध्वनि जगाते हैं, और उस स्वकीय, सनातन जीवन की समृद्ध विरासत हमको उपलब्ध करवा देते हैं। आरंभ में यदि संस्कृत काव्य कठिन लगे तो पुराण ग्रंथ पढ़ो। पुराणों की भाषा बिल्कुल, एकदम वाल्मीकि-रामायण। वह जितना सुंदर है, उतना सरल भी १. विजया बहन की पुत्री निरूपमा (बबनी)। २६६ / समन्वय के साधक

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