Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
View full book text
________________
सुनता था। तबसे जिस स्वातंव्य की राह देख रहा था, वह स्वातंत्र्य अब निकट आया हुआ दीख रहा है। स्वातंत्र्य के पदचाप स्पष्ट सुनाई दे रहे हैं और स्वास्थ्य ने यदि दगा न दिया तो इस स्वातंत्र्य के प्रयास में यह मेरा देह जरूर अर्पण होनेवाला है। स्वातंत्र्य मिलने के पश्चात् जो नवविधान करने पड़ेंगे, राज्य की, समाज की और धर्म की जो नवरचना करनी पड़ेगी, उसमें मेरा कमोबेश उपयोग होगा, ऐसा आत्मविश्वास है । किन्तु एकाग्र इच्छा तो यही है कि स्वातंत्र्य प्राप्ति में ही इस देह का अंत हो जाये। नवरचना करनेवाले रचनाकुशल असंख्य उत्पन्न होंगे, और मुझे भी मोक्ष का अस्वीकार करके फिर से जन्म लेने में कौन सी रुकावट है ?
किन्तु मैं पहली टुकड़ी में जा नहीं सकता। मुझे तो नयी-नयी टुकड़ियां तैयार करके रण मैदान पर भेजनी हैं। गांधीजी की टुकड़ी निकली, इसके अगले दिन विद्यापीठ की टुकड़ियां यहां से उसी रास्ते से निकल पड़ीं। उनको हम 'अरुण टुकड़ी' कहते हैं । ये टुकड़ी आगे-आगे जाकर सूर्योदय की तैयारी करेंगे । गांव में सफाई करना, बापूजी के दल के लिए रहने की व्यवस्था करना, चरखे इत्यादि तैयार रखने से असंख्य काम गांववालों की मदद से करने के होते हैं। कभी-कभी हमारी टुकड़ी को गांधीजी की टुकड़ी से दुगुना चलना पड़ता है। कहीं-कहीं पीछे की व्यवस्था करके आगे की व्यवस्था के लिए दौड़ धूप करके जाना पड़ता है। विद्यापीठ के सोलह वर्ष से ऊपर के लगभग सभी विद्यार्थी लड़ाई में जुड़ गये हैं, और उत्कृष्ट काम कर रहे हैं। हमारी छह टुकड़ियां गुजरात में जगह-जगह फेल कर प्रचार कार्य कर रही हैं। पटेल-पटवारी के त्यागपत्र यानि ब्रिटिश साम्राज्य को देहान्त सजा इन त्यागपत्रों का काम भी हमारे विद्यार्थी और अध्यापक कर रहे हैं ।
।
अभी-अभी नवागाम में दिए हुए व्याख्यान में बापूजी ने गांवों में विद्यापीठ ने जो काम किया उसका गौरव से उल्लेख किया। गरीबों के हिमायती के तौर पर अब हमारी मंडली ने अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। आनंद में बापूजी बोले थे, “अब मैं विद्यापीठ को सौ मार्क्स (अंक) देने को तैयार हूं। इस बार विद्यापीठ ने अपनी योग्यता सिद्ध की है । विद्यापीठ के पीछे जो भी पैसा खर्च हुआ वह आज उग निकला है । विद्यार्थियों ने देश के लिए शिक्षण का भी त्याग किया और अन्य भी बहुत त्याग किया है ।" बापूजी के मुख से ऐसे उद्गार निकले, इससे अधिक धन्यता कौन-सी हो सकती है ? हमारे विद्यार्थी सचमुच ही इस स्तुति के योग्य है। लगभग प्रत्येक विद्यार्थी की घरेलू बातें मैं जानता हूं इसलिए दुनिया को कभी भी मालूम नहीं हो सकनेवाले उनके वीरत्व के प्रसंग मैं जानता हूं । और कितने ही माता-पिता ने अपने बच्चों को प्रोत्साहन - पूर्वक आशीर्वाद भी दिया है। गुजरात में की हुई बापूजी की और वस्लभभाई की तपस्या इतनी जबरदस्त कि उसने गुजरात का रूप ही बदल दिया है।
आजकल में यदि बापूजी गिरफ्तार न किये गये तो जलालपुर में नमक तैयार करते समय पकड़े जायेंगे। उस समय गुजरात में फैली हुई हमारी सब टुकड़ियों को एक के बाद एक लाकर लड़ने का मौका देना है। इसके लिए मैं शायद जल्दी ही वहां जाऊंगा। 'नवजीवन' तो आप पढ़ते ही होंगे।
अत्यंत आनंद की बात यह है कि वि० शंकर', सामने आई हुई परीक्षा को लात मारकर गांधीजी की टुकड़ी में दांडी यात्रा में शामिल हुआ है। मुझे मिलकर वह सीधा मातर को गया। बापूजी बोले, "तुमको नहीं लूंगा ? तो किसको लूंगा ?" नडियाद में जब में बापूजी को मिलने गया था, मिलते ही बापूजी आनंद से बोले, "काका, शंकर ने लाज रखी ।" अन्य जगह बोले, "परिपक्व फल फैंक कर शंकर जैसे लड़के
१. काकासाहेब के बड़े पुत्र सतीश ।
२६४ / समन्वय के साधक