Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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थोड़ा जय तुज येता मिलतिला साह्याला साचार रे ठायि ठायिचे निर्जर राजे तसेच तत्सरदार रे
देवा द्ये हातीं तलवार ।.........
(हे गणेश जी, भगवान्, हाथ में तलवार लेकर संगर यानी युद्ध के लिए तैयार होइये खिलाफ लड़ते जब तुम्हें थोड़ी विजय प्राप्त होगी तब जगह- जगह के देवता राजा जो निर्वीर्य हैं, तुम्हारी मदद में आयेंगे और उनके सरदार भी आयेंगे। उनकी मदद से देश आजाद होगा । )
लोकमान्य के जमाने के चन्द क्रान्तिकारी हैदराबाद के निजाम के यहां गये। देखने के लिए कि वहां कुछ आजादी के प्रयत्न को बल मिलता है या नहीं ? श्रीकृष्णजी प्रभाकर खाडिलकर नेपाल गये यह विश्वास लेकर कि वहां के स्वतन्त्र राज से कुछ सहानुभूति और मदद मिलेगी । अन्य क्रान्तिकारी लोगों ने आशा रखी थी कि शायद कोल्हापुर के छत्रपति से प्रश्रय मिलेगा। उन्हें कैसा अनुभव हुआ यह तो हमेशा के लिए रहस्य ही रहेगा । पता नहीं, आजादी के इतिहास में भी उस प्रकरण को स्थान रहेगा या नहीं। महाराष्ट्रियों के दूसरे एक दल ने बड़ौदे का आश्रय लिया। वहां की प्रवृत्ति के बारे में अंग्रेज सजग थे । यूरोप के महायुद्ध के बाद जब अंग्रेजों का साम्राज्य १८५७ से भी मजबूत हुआ तब उन्होंने स्वराज का आन्दोलन दबाने के लिए रौलेट कमीशन नियुक्त किया। उस कमीशन की रिपोर्ट में आजादी की प्रवृत्ति के इस पहलू का अच्छा जिक्र है। श्री अरविन्द घोष, श्री केशवराव देशपाण्डे, श्री खासेराव और श्री माधवराव जाधव ये सारे भारत की आजादी के अनन्य उपासक थे। हरएक का दृष्टिकोण अलग-अलग लेकिन सबका हृदय एक था। श्री अरविन्द घोष, उनके भाई श्री बारीन्द्र घोष और केशवराव देशपाण्डे इनकी कल्पना उनकी भवानी मन्दिर की योजना में व्यक्त हुई है। उस योजना की बुनियाद में भारत की धर्मनिष्ठा है। और उनकी कार्य पद्धति वही है जिसे आगे जाकर गांधी जी ने 'रचनात्मक कार्यक्रम' का नाम दिया।
दुश्मन
नहीं हुए
के
सन् १९१५ से मेरे विचारों में परिवर्तन होने लगा । स्वामी विवेकानन्द के विचार, भगिनी निवेदिता का 'अग्रेसिव हिन्दूइज्म' आनन्दकुमार स्वामी का कलात्मक ध्येयवाद और ग्रामीण-संस्कृति का पुनरुद्धार करने का आग्रह, लाला हरदयाल की बहुरूपी क्रान्ति मीमांसा और रवीन्द्रनाथ का राष्ट्रपूजा धर्म का विरोध' आदि बातें क्रमशः जंचने लगी। (यह सब मैंने काल - क्रम से नहीं लिखा है ।) लेकिन जैसे-जैसे मेरे विचारों में परिवर्तन होने लगे वैसे-वैसे श्री गंगाधरराव से मैं चर्चा करता रहा और मैंने देखा कि उनका वाचन काफी विशाल था। वे नये-नये विचार ग्रहण करने में युवकों से कम तैयार नहीं थे।
शुरू की ही बात कह दूं । बम्बई प्रान्त की राजकीय परिषद बुलाने की बात थी। लोकमान्य मांडले से लौटे थे । राजकीय परिषद् बेलगाम में होनेवाली थी। गंगाधरराव और मेरे बीच तय हुआ कि इस परिषद् हम महात्मा गांधी को बुलावें । उन दिनों वे महात्मा नहीं बने थे, कर्मवीर गांधी थे ।
मैंने गांधीजी से पूछा कि आप नरम दल के साथ ही क्यों एकरूप हो जाते हैं? आप की राष्ट्रीयता कम उज्ज्वल नहीं है । राष्ट्रीय पक्ष के साथ भी आपको अपना सम्बन्ध रखना चाहिए। आप हमारे बेलगाम आयेंगे ? हम तिलक पक्ष के लोग तय करने वाले हैं कि हम कांग्रेस में फिर से शरीक हों या नहीं। गांधीजी ने कहा कि बुलायेंगे तो जरूर आऊंगा। परिषद् में गांधीजी ने कहा- 'आप दलीलबाज वकील बनकर कांग्रेस में प्रवेश न कीजिये । 'बहादुर सैनिक बनकर आइये ।'
गंगाधरराव ने बड़ी खूबी से ऐसी व्यवस्था की कि गांधी और तिलक दोनों एकान्त में मिलें और एकदूसरे को समझने की कोशिश करें। स्वयं गंगाधरराव भी उस समय उपस्थित नहीं रहे। काफी देर तक दोनों की बातचीत हुई। लौटते हुए तिलक ने गंगाधरराव से कहा, 'यह आदमी हमारा नहीं है। उसका रास्ता अलग
२६८ / समन्वय के साधक