Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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मुझे दीजिये । वही मेरा मंगलाचरण होगा ।
"जब तुम्हारे जैसे कट्टर कांतिवादी गांधीजी का अहिंसक मार्ग पसन्द करते हैं तब तुम्हारे ही मुंह से उसकी खूबियां मैं समझना चाहता हूं, " ऐसा कहकर गंगाधरराव ने गांधी मार्ग के बारे में चर्चा शुरू की । क्रांतिकारी क्रांतिकारी की परिभाषा में ही बोल सकता है, समझा सकता है । हमारी ऐसी ही स्थिति थी । गंगाधरराव के वृद्ध पिता को ( क्रांति में वे गंगाधरराव से कम वृद्ध मालूम पड़ते थे। विनोद शक्ति में और प्रसन्नता में दोनों एक से थे । ) वेदान्तविद्या का शौक था। इसलिए मैं उनसे मिलने जाता और हमारी काफी चर्चा होती थी । कभी-कभी वे कहते थे कि, 'मैं तो मामूली मुख्त्यार वकील था । अगर मुझे कभी जेल जाना पड़ता तो किसलिए ? झूठी गवाही या जाली दस्तावेज बना दिया ऐसे कारण से । लेकिन मेरे लड़के को जेल हुई है ब्रिटिश साम्राज्य के बादशाह के विरुद्ध बलवा - विद्रोह करने की कोशिश में कितना बड़ा फर्क ! और मेरे लिए कितने अभिमान की बात! मेरा लड़का जेल जाता है इसका मुझे दर्द नहीं है। हमारे परिवार का मुख उसने उज्ज्वल किया, हमारी शान बढ़ी।'
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पुराने जमाने की जमींदारी का अच्छा नमूना था, गंगाधरराव का परिवार। जब वे पढ़ने के लिए कॉलेज में गये तब पिता ने उनके साथ एक रसोइया और एक नौकर दिया था। ऐसी शान के बिना लड़के को बेलगाम से पूना भेजना पिता को पसन्द नहीं था । लड़के को यही बात हास्यास्पद लगी और उसने थोड़े ही दिनों में दोनों को वापस भेज दिया। दो जमानों में कितना अन्तर ! जब गंगाधरराव का कॉलेज जीवन पूरा हुआ तब उन्होंने पिता को पत्र लिखा कि 'अब मैं पुराने मकान में कैसे रहूं ? अब मेरे लिए एक नये ढंग का नया बंगला बांध रखिये । आते ही उसमें रह सकूं ।' नये जमाने की नई शान ।
कहते हैं कि गंगाधरराव ने पहले तो नामदार गोखले की 'सर्वन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी' (भारत सेवक समाज) में दाखिल होना चाहा था; लेकिन गोखले ने उनके विचार और उनका उत्साह देखकर उन्हें सिफारिश की कि आप लोकमान्य तिलक के पास जाइये। गंगाधरराव तिलक के पास गये और एक तरह से उनके दाहिने हाथ बन गये । लोकमान्य की प्रवृत्ति पूना से चलती थी। गंगाधरराव उनके कर्नाटक के प्रतिनिधि । देखते-देखते अपना प्रान्त उन्होंने जाग्रत किया। मराठी और कन्नड़ दोनों भाषाओं में गंगाधरराव का वक्तृत्व अप्रतिम था। महाराष्ट्र में भी उनकी कोटि के वाग्मी बहुत कम थे।
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जब लोकमान्य विलायत गये तब उन्होंने अपनी गद्दी पर गंगाधरराव देशपाण्डे की नियुक्ति की और कहा कि आप पूना में आकर मेरे ही घर पर रहिये मेरा कमरा ही आपका कमरा होगा मराठी 'केसरी' और अंग्रेजी 'मराठा' दोनों अखबार चलानेवाले सम्पादक आपकी ही निगरानी में काम करेंगे। गंगाधरराव ने ऐसे विश्वास और ऐसी नियुक्ति के लिए लोकमान्य को धन्यवाद दिया और कहा, आपके दोनों सम्पादकं सुयोग्य पुरुष हैं। मैं बेलगाम ही रहूंगा। पूना आता-जाता रहूंगा। आप पीछे की चिंता न करें। गंगाधरराव जानते थे कि अपने नेता की गद्दी पर जाकर बैठने से उनकी कार्यशक्ति नहीं बढ़ेगी। असली काम तो विचारप्रचार का है ।
मेरा प्रधान कार्य राष्ट्रीय शिक्षा का ही था मैं क्रान्तिवादी था सही, किन्तु मैं मानता था कि राष्ट्रव्यापी क्रान्ति करनी हो तो अब देशी राजाओं को तैयार करने से नहीं होगी। वह पद्धति सन् १८५७ में खत्म हुई। अब तो प्रजा - जागृति का ही युग है। हमारे जमाने के स्वातन्त्र्य वीर श्री सावरकर ने गणेशजी की आरती में प्रार्थना की थी।
देवा थे हाती तलवार, हो संगरा तयार,
देवा द्ये हाती तलवार.........
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