Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

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Page 280
________________ हमें संकोच होगा, न लज्जा । लेकिन अपनी संस्था के अन्दर, अपने लोगों के साथ, खास करके अपने नेताओं के साथ तो पूरी-पूरी सत्यता होनी चाहिए। हम लोग देश के लिए प्राण अर्पण करने के लिए तैयार हैं, लेकिन अपनी छोटी-छोटी कमजोरियां छोड़ नहीं सकते।' गंगाधरराव ने अपने कथन में मुझे जो प्रमाण-पत्र दिया उससे तो मानो उन्होंने मुझे जीत ही लिया । ( गांधीजी ने भी इसी तरह मेरे स्वभाव की थोड़ी कदर करके मुझे अपनाया था। उस घटना का आज यहां स्मरण होता है ।) एक दिन हमारे सम्पादक मण्डल में गरमागरम चर्चा हुई। हम सब लोग उत्साह में आकर जोरों से 'अपनी-अपनी कलम चलाते थे । दैनिक पत्र के लिए खूब लिखना पड़ता है और वह भी समय पर । हम सब लोग अपने-अपने काम में गर्क थे, इतने में मुझे बाथरूम की ओर जाना पड़ा। वहां क्या देखता हूं कि गंगाधरराव स्वयं नल के नीचे बाल्टियां रखकर उस पानी से पेशाबघर और टट्टीघर साफ कर रहे हैं ! हाथ में एक बड़ा झाड़ लेकर टट्टीघर का फर्श साफ कर रहे हैं। कर्नाटक के नेता, स्वराज की गर्जना करनेवाले व्याख्यानकेसरी और हम क्रांतिकारियों के पूज्य नेता उन्हीं कमरों को साफ कर रहे हैं जो हम अपनी बेदरकारी के कारण गन्दी हालत में छोड़ देते थे। चकित होकर मैंने चिल्लाकर पूछा, 'आप यह क्या कर रहे हैं? क्या हम सब मर गये, जो आप को यह काम करना पड़ा ?' उन्होंने सहजभाव से जवाब दिया, 'आप सब अपना काम तो कर ही रहे हैं, आप खाली थोड़े ही बैठे ही हैं ? देखा कि ये कमरे गन्दे पड़े हैं तो साफ कर लिये । उसमें क्या हुआ ?" उन दिनों 'राष्ट्रमत' का काम ज्यादातर हम स्वयंसेवक ही करते थे। राष्ट्रमत के ऊपर कर्जा था वह दूर करना था । हम सब स्वयंसेवक राष्ट्रमत के मकान में ही रहते थे । वहीं सब साथ खाते थे। रात को टेबल पर के अखबार हटाकर उन्हीं पर वहीं सोते थे। यह सब देखकर लोग हमारी संस्था को 'राष्ट्रमठ' कहते थे। गंगाधरराव सबके साथ समान भाव से रहते थे, खाते-पीते थे, और हमें प्रेरणा देते थे। मैंने ऊपर कहा ही है, मैं उन्हें करीब-करीब पिता के जैसा ही मानता था । गंगाधरराव के कारण श्री खाडिलकर केलकर, काका पाटील, श्री दा० बि० गोखले चित्र शाला के वासुदेवराव जोशी आदि अनेक लोगों से मेरा परिचय हुआ। लोकमान्य तिलक के साथ स्वतन्त्र रूप से थोड़ा परिचय हुआ था, लेकिन वह बड़ा नहीं। मैं चाहता तो बढ़ा सकता था। बेलगाम के श्री गोविन्दराव बालगी तो हाईस्कूल के मेरे सहपाठी थे। लेकिन उनका घनिष्ठ परिचय गंगाधरराव के कारण ही हुआ। मैं मानता हूं कि अपने प्रति अविश्वास होना मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्देव है काम गंगाधरराव ने ऐसे मौके पर किया, जब मैं अपने सेवा जीवन का प्रारम्भ ही कर रहा था। ( इसी तरह मेरे जीवन में आत्मविश्वास का फिर से प्रस्थापन करनेवाले थे मेरे मित्र स्वामी आनन्द । उनके प्रति भी मैं उतना ही कृतज्ञ हूं। उनका परिचय भी राष्ट्रमठ में 'राष्ट्रमत' के कारण ही हुआ । ) श्री गंगाधरराव देशपाण्डे ने 'राष्ट्रमत' बन्द होने के बाद मुझे श्रीअरविन्द घोष के स्नेही श्री केशवराव देशपांडे के पास जाने की इजाजत दी और मैंने बेलगाम का अपना राष्ट्रीय शिक्षा का काम बड़ौदे में बढ़ाया। वहां से मैं हिमालय और शान्तिनिकेतन होकर गांधीजी के पास गया, तो भी गंगाधरराव के साथ, मेरा सम्बन्ध कायम रहा । जब मेरी कोई प्रवृत्ति पूरी होती थी तब मेरा रिवाज था कि मैं गंगाधरराव के पास जाऊं। मैं उनसे कहता था कि आपके पास कुछ काम न हो तो मैं जो नया काम शुरू करूं उसमें मुझे मदद कीजिये। लेकिन इस तरह मैं आपको बांधना नहीं चाहता। मैं जो नई प्रवृत्ति शुरू करूं या स्वीकारूं उसमें हार्दिक आशीर्वाद २६६ / समन्वय के साधक उससे मुझे बचाने का

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