Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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भारत लौटे थे। अपने फिनिक्स आश्रम के साथियों से मिलने के लिए वे शान्तिनिकेतन में पधारे थे। मैं भी उन दिनों शान्तिनिकेतन में था। उनके स्वागत के समारोह में मैंने उत्साहपूर्वक हिस्सा भी लिया था। उन्हीं दिनों गांधीजी ने मुझे अपने आश्रम में आने का आमन्त्रण दिया था। किन्तु मैं आश्रम में प्रत्यक्ष शरीक हुआ बहुत दिनों के बाद । मैं बैरिस्टर केशवराव देशपाण्डेजी के साथ था। गांधीजी ने उन्हें मेरे बारे में लिखा, तब स्वयं देशपाण्डेजी मुझे सत्याग्रह आश्रम में ले गए।
उसके पहले विनोबाजी आश्रम के सदस्य बन चुके थे। किन्तु आश्रम में प्रवेश पाते ही उन्होंने गांधी जी से कहा कि "संस्कृत विद्या में अच्छा प्रवेश पाने का मेरा संकल्प है। उसे पूरा करने के लिए मैं वाई की प्राज्ञ-पाठशाला में श्री नारायण शास्त्री मराठे के पास जाना चाहता हूं।"
इस प्रकार आश्रम में प्रवेश पाकर विनोबाजी वाई चले गए और आश्रम के विद्यार्थियों को संस्कृत सिखाने का काम मुझे आश्रम में दाखिल होते ही अपने सिर पर लेना पड़ा। एक साल पूरा होते ही विनोबा फिर आश्रम में आये और काम में लग गए। किन्तु जो लोग यह नहीं जानते थे कि विनोबा आश्रम में पहले दाखिल हुए थे, वे मानने लगे कि आश्रमवासियों में काकासाहेब सीनियर हैं और विनोबा जूनियर हैं। असल में गणित के हिसाब से देखा जाय तो वे सीनियर हैं और संकल्प तथा प्रत्यक्ष काम की दृष्टि से मैं सीनियर हूं।
किन्तु आज गांधीजी के देहान्त के बीस वर्ष बाद मैं कह सकता हूं कि गांधी-कार्य के प्रचार में और विस्तार में विनोबा हम सबमें 'सीनियरमोस्ट' हैं।'
१. 'विनोबा और सर्वोदय क्रान्ति' से
गंगाधरराव के कुछ संस्मरण
कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके स्वराज्य-सेवा के हेतु राष्ट्र-कार्य करने का संकल्प मैंने किया। उसी समय बेलगांव कर्नाटक के लोकनेता श्री गंगाधरराव देशपांडे के साथ मेरा परिचय बढ़ा। उन दिनों मेरी देश-भक्ति जितनी गहरी थी, सेवा करने की उमंग जितनी उछलती थी, उतनी ही अपनी योग्यता और कार्य शक्ति के बारे में मेरा अविश्वास असाधारण था। मुझे लगता था--और सही लगता था-कि लोगों से पेश आने की खबी ही मुझमें नहीं है। मेरा नसीब ही ऐसा है कि मेरे बारे में गलतफहमी जल्द होती है। उसे दूर करने की जितनी कोशिश करूं उतनी ही उसे मजबत करने की सफलता मुझे मिलती है। मैं मानता था कि आसपास के लोग मेरा तिरस्कार ही करते हैं। जो सज्जन हैं वे उसे छुपाते हैं और मुझसे दूर रहते हैं। कालिदास ने जिसे 'आत्मनि आरत्यय चेतः' कहा है ऐसा ही मन मुझे मिला है। और साथ-साथ तमीज और शिष्टाचार जैसी वस्तु मैं जानता ही नहीं। लाने की कोशिश करूं तो उल्टा ही हो जाता है।
ऐसे स्वभाव के साथ मैंने राष्ट्रसेवा, स्वराज-सेवा, सर्वांगीण समाजसेवा करने का निश्चय किया। सनातनी रूढ़िपरायण संस्कारों में मेरा बचपन व्यतीत हुआ था। उनके खिलाफ लड़ने का भी जोश मन में पैदा हुआ था । फलतः समाज के खिलाफ लड़ पड़ने की भी तैयार थी। इसपर आया वेदान्त का जोश और उत्साह, जो स्वामी विवेकानन्द के ग्रंथों में लूंस-ठूसकर भरा हआ था। राजनीति में क्रान्तिवादी, सामाजिक क्षेत्र में रूढ़िविरोधी, और धर्म के क्षेत्र में वेदान्त का प्रचारक ऐसा विचित्र व्यक्तित्व लेकर मैंने अपने जीवन
२६४ / समन्वय के साधक