Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

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Page 258
________________ अपने जीवन में जो-जो किया, समाज के साथ सहयोग किया या उसकी सेवा की, उसकी भली-बुरी विरासत उसके समाज को मिलती है और इस तरह वह समाज पर असर करता रहता है। वह है उसका मरणोत्तर जीवन । महावृक्षों और पर्वतों की छाया दूर तक पहुंचती है। बुद्ध भगवान और महात्मा गांधी जैसों का असर समाज में हजारों बरसों तक अपना काम करता है। इसलिए इन लोगों को हम दीर्घजीवी या चिरजीवी कहते हैं । समूचे जीवन का विचार करते हुए कहना पड़ता है कि मृत्यु के इस तरफ का, पूर्व जीवन छोटा है, केवल तैयारी के जैसा है, सच्चा विशाल जीवन तो मृत्यु के बाद ही शुरू होता है । मृत्यु के पहले का जीवन पुरुषार्थी होने के कारण उसका महत्त्व खूब है । मृत्यु के बाद का जीवन परिणामरूप होने से व्यापक और दीर्घकालिक होता है । इसलिए उसका भी महत्त्व कम नहीं। मृत्यु के बाद जो जीवन जिया जाता है, उसे हमारे धर्मग्रंथों में उपनिषदों में-- नाम दिया है साम्पराय। जो लोग बच्चों के जैसे अज्ञान है, अंधे हैं, वे साम्पराय को नहीं देख सकते "न साम्परायः प्रतिभाति बालम्।" 1 जो ज्ञानी है, जानकार है, वह मरणोत्तर जीवन को और उसके महत्त्व को पहचानता है । वह कहता है कि इतने बड़े महत्त्व के और सुदीर्घ साम्पराय को नुकसान पहुंचे, ऐसा कार्य मैं अपने जीवन में पूर्व तैयारी के काल में नहीं करूंगा। बचपन में अगर क्षणिक उन्माद के कारण ब्रह्मचर्य को नष्ट किया तो मनुष्य का सारा का सारा गृहस्थाश्रम बिगड़ जाता है। इसलिए दीर्घदर्शी आत्महित समझनेवाला कहता है कि गृहस्थाश्रम का पूरा आनन्द लेने के लिए ब्रह्मचर्य का पूर्वाधम मैं संयम से, शुद्ध रूप से, व्यतीत करूंगा। मेधावी मनुष्य कहता है कि जिह्वालौल्य को क्षण मात्र तृप्त करने के लिए अगर मैं अपथ्य आहार वा अति-आहार करूंगा तो दीर्घकाल तक मुझे बीमार रहना पड़ेगा और मैं आरोग्यानन्द और जीवानन्द से वंचित रहूंगा। इसलिए मैं अपथ्यसेवन नहीं करूंगा । संयम के द्वारा उत्कट जीवनानन्द प्राप्त होता है, उसीको लूंगा । मरणोत्तर जीवन का जिसे ख्याल है और जिसको इस बात की जागृति और स्मृति रहती है, उसीका जीवन शुद्ध और समृद्ध होता है । साम्पराय में स्थूल देहगत जीवन को अवकाश नहीं रहता । मनुष्य अपने समाज में ही जीवित रह सकता है और उस जीवन में उसका पुरुषार्थ अथवा प्रेरणामय जीवन बढ़ता ही जाता है। इस्लाम में एक सुन्दर कल्पना पाई जाती है ! किसी मनुष्य ने मुसाफिर के लाभार्थ रास्ते के किनारे एक कुआं खोदा । उसके संकल्प और परिश्रम के अनुरूप इस शुभ कर्म का (पूर्त का ) उसे पुण्य मिला। अब दिन-पर-दिन जितने मुसाफिर इस कुएं से लाभ उठाते हैं, उतना उस आदमी का सवाब (पुण्य) बढ़ता जाता है। अगर यात्रियों का रास्ता बदल गया और लोगों ने इस रास्ते जाना छोड़ दिया तो पुण्यकारी का पुण्यसंचय ज्यादा नहीं बढ़ेगा । पुण्यकारी का सबाबमय जीवन - पुण्य जीवन — बढ़े या घटे, समाज के हाथ में है । लोग अगर उसे याद करते रहे तो उसकी मरणोत्तर आयु दीर्घ होगी। लोग उसे भूल गये, उसके काम का असर मिट गया तो उसके साम्पराय की मीयाद खत्म होगी। अब सवाल यह आता है कि अगर मरण के बाद हमारा जीवन सामाजिक स्वरूप का ही रहनेवाला है तो मरण पूर्व के 'इस जीवन में हम समाज जीवन ही व्यतीत क्यों न करें ? स्वार्थवश संकुचित होकर और इन्द्रियवश होकर प्रमत्त जीवन, असमाजी जीवन व्यतीत क्यों करें? जिस तरह मरणोत्तर जीवन सामाजिक रहेगा, वैसा ही जीवन अगर मृत्यु पूर्व व्यतीत किया तो मृत्यु के इस पार और उस पार एक ही प्रकार का शुभ २४४ / समन्वय के साधक

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