Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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काले लोगों को जंगली कहें और परस्पर आदर की जगह अभिमान और तुच्छता का वातावरण ही समाजमान्य बन जाय यह रोगी और अवांछनीय सह-अस्तित्व है। समन्वय नहीं है।
धर्म की ही बात लीजिये। अभिमानी, जबरदस्तों के सामने हम सिर झुकाते हैं। जो लोग किसी से भी झगड़ा नहीं करते, उनसे हम अलग ही रहते हैं। पश्चिम हिन्दुस्तान के पारसियों को ही लीजिए। धार्मिक आक्रमण से बचने के लिए उन्होंने अपना देश ईरान छोड़ा। सारी दुनिया में वे कहीं भी जा सकते थे। उन्होंने भारत आना पसन्द किया क्योंकि यहां उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को तनिक भी खतरा नहीं था। वे हमारे देश आए और हमारे बीच रहे यह उनका हमारे लिए 'वोट ऑफ कान्फीडेन्स' था। १३०० वर्ष हुए वे हमारे बीच रहे हैं। लेकिन हमने उनके धर्म का परिचय नहीं किया । जर्मन, अंग्रेज, फ्रेंच और अमेरिकन उनके धर्म का अध्ययन करते हैं, अच्छी किताबें लिखते हैं। हम तो उन्हें पढ़ते भी नहीं।
इस्लामी राज्यकर्ता भारत आये। यहां उनका राज्य हुआ। यहां के लाखों लोग मुसलमान हुए लेकिन पारसियों को इस देश में वह खतरा नहीं रहा, जो ईरान में था।
मैंने तो एक छोटा-सा ही उदाहरण दिया। अब जब भारत में स्वदेशीय या विदेशी राजाओं का राज्य नहीं रहा, प्रजा का ही राज्य है और स्वराज्य सरकार सब धर्मों के प्रति इज्जत की एक-सी निगाह से ही देखती है तब हमें अपना-अपना अभिमान छोड़कर और औरों के प्रति तुच्छता या उपेक्षा न रखते हुए परस्पर परिचय बढ़ाना चाहिए, एक-दूसरे के त्योहार में शरीक होना चाहिए, सब तरह से सहयोग बढ़ाना चाहिए, संकट के समय एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए और पारिवारिक सम्बन्ध से घुल-मिलकर रहना चाहिए।
गांधीजी कहते थे कि सब धर्म अच्छे हैं, क्योंकि वे भगवान के दिए हुए हैं । किन्तु सब धर्म अपूर्ण हैं, क्योंकि मनुष्य ने अपनी-अपनी अपूर्णता उसमें डाल दी है । जिस तरह आकाश से आनेवाला बारिश का पानी शुद्ध होता है, लेकिन जमीन पर पड़ते हो मिट्टी के गुण-दोष और रंग लेता है, वैसा ही सब धर्मों का हुआ है।
ऐसी हालत में अपने-अपने धर्म को सुधारने का काम हर धर्म के अनुयायी स्वयं करें। हम दूसरे के धर्म नुक्ताचीनी या निंदा न करें। दूसरों के धर्मों में हमें जो अच्छा लगे उसका हम प्रसन्नता से कीर्तन करें और अपने ढंग से स्वीकार करें। इस तरह हरएक समाज एक-दूसरे से लाभ उठाकर अपने धर्म को और अपनी संस्कृति को समृद्ध और सर्वकल्याणकारी बनावे । यही है समन्वय । दूसरे के धर्म का नाश कर अपने ही धर्म को चलाने की बात अब दुनिया में नहीं चलेगी।
और असल में देखा जाए तो ये एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हैं। जैसे एक वृक्ष की अनेक शाखाएं होती हैं वैसे ही एक किसी प्राचीन सनातन धर्म की ये सब शाखाएं हैं।
___ हम हिन्दू धर्म को बड़े प्रेम से और अभिमान से सनातन धर्म कहते हैं। सच देखा जाय तो हिंदू धर्म सार्वभौम विशाल सनातन धर्म की एक शाखा ही है।
मेरे पास ये पारसी दस्तूर बैठे हैं। उनके धर्म के आद्यग्रंथ गाथा के रूप में पाये जाते हैं। हिन्दु धर्म अगर वैदिक धर्म है तो पारसियों के धर्म को गाथिक धर्म कहना चाहिए। यह गाथिक धर्म सार्वभौम सनातन धर्म की एक शाखा ही है। उनके धर्म में भी इंद्र, मित्र (सूर्य) वरुण, अग्नि, यम, नासत्य आदि देवता हैं। उनकी अवस्ता भाषा और हमारी वैदिक संस्कृत व्याकरण में और शब्दावली में मिलती-जुलती भाषाएं हैं। वे भगवान को असुर अथवा अहुर कहते हैं तो हमारे वेद में भी इंद्र और वरुण को असुर कहते हैं। असु याने प्राण, उसकी रक्षा करता है वह असुर । देव और असुर का झगड़ा बाद में हुआ। अब ऐसे झगड़ों को मिटाकर समन्वय करने के दिन आ गए हैं।
___ इन पारसियों के धर्मगुरु जरथुस्त्र का गहरा असर हजरत मूसा, इब्राहिम और दावीद के यहूदी धर्म २६० / समन्वय के साधक