Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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कभी-कभी काकासाहेब के पास आते रहते और मेरे बारे में उनसे कहा करते कि हमें इसका डर है कि यह घर छोड़कर हरिद्वार या कहीं जाकर साधु न बन जाय, क्योंकि साधु-संगत का उस पर ज्यादा असर है । काकासाहेब ने मुझसे बगैर कुछ कहे, प्रवचन के जरिये अपना रामबाण चलाना शुरू कर दिया और मुझको मेरे कर्तव्य के प्रति जिम्मेदारी समझाते रहे। आहिस्ता आहिस्ता उनके प्रवचनों ने मुझ पर पूरा असर किया । और मेरे मन से घर छोड़कर साधु बनने का ख्याल बिलकुल हट गया। मैं समझता हूं यह काकासाहेब की मुझ पर बड़ी कृपा हुई उन्होंने मुझ पर किसी प्रकार का दबाव न डालकर मुझे मेरे कर्तव्य का मान कराया और हमारे घर में हर तरह की सुख-शांति तथा देवी संपत्ति की श्रीवृद्धि करायी। मुझे उन्होंने माता-पिता के, भाइयों के, धर्मपत्नी के प्रति कर्तव्य का भान कराया और समाज के प्रति मनुष्य के कर्तव्य का भान कराया।
आज पूरे सत्तरह साल हो गये। भगवान की कृपा से उनका सत्संग और प्रवचन का लाभ मिल रहा है । मैं पूरी आस्तिकता से यह मानता हूं कि काकासाहेब के सत्संग से मेरा जीवन ही बदल गया है और हमारे परिवार के सदस्यों को भी पूरा संतोष हुआ है। घरवालों को पूर्ण विश्वास है कि अगर काकासाहेब का सत्संग न मिलता तो उनका लड़का घर छोड़कर साधु बन गया होता। मेरा भी विश्वास है कि काकासाहेब का सत्संग न मिलता तो मैं आवेश में घर छोड़कर नेता बनता और मेरा जीवन ही कुछ और होता ।
भगवान से प्रार्थना है कि वह काकासाहेब का साया हम पर हमेशा कायम रखे। O
जीवन-कला के आचार्य
चिमनभाई भट्ट
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काकासाहेब से मेरा प्रथम साक्षात्कार ५७ वर्ष पहले १९२२ में सत्याग्रह आश्रम में हुआ । झलकमात्र होते हुए भी उस अवसर की याद मेरे मन पर अब तक बनी है।
मैं सूरत कालेज में इंटर वर्ग में पढ़ता था। गांधीजी के असहयोग आन्दोलन का आह्वान राष्ट्र को मिल चुका था; और गांधीजी घूमते-फिरते आश्रम में पधारे थे। उनकी एक सभा उस समय के पाटीदार आश्रम में आमवृक्ष के नीचे हुई थी। उसमें हम कई विद्यार्थी उनका संदेश सुनने को गये थे। संदेश बहुत प्रेरक और देश के लिए सर्व-समर्पण का जोश पैदा करनेवाला था। गांधीजी ने कुछ ऐसा कहा था, "यदि हम पुरुषार्थ करेंगे तो एक ही वर्ष में स्वराज्य मिल गया समझो। मेरे एक हाथ में रचनात्मक कार्य हैं, दूसरे में स्वराज्य है । रचनात्मक कार्य पूर्ण करो और स्वराज्य ले लो।" ऐसा प्रभावशाली और अभूतपूर्व संदेश सुनकर हममें से कइयों के दिलों में गुलामी से मुक्त होकर स्वतन्त्र हवा में सांस लेने की तमन्ना जागी और थोड़े ही दिनों में हमने कालेज को तिलांजलि दे दी। तत्पश्चात् गुजरात विद्यापीठ की स्थापना हुई और उसके साथ हम जुड़ गये। उन दिनों गांधीजी का तथा सत्याग्रह आश्रम का आकर्षण बहुत अधिक था। एक दिन हम लोग किसी कार्यवश आश्रम गये और रात को वहीं रह गये । हमारी पन्द्रह-बीस लोगों के सोने की व्यवस्था छात्रालय के ऊपर छज्जे में की गयी थी। जब हम सब सोने के लिए गये, मैंने किसी एक किनारे पर सोने की रुचि प्रकट की । काकासाहेब वहीं खड़े थे। मेरी बात सुनकर उन्होंने पूछा, “सिरे पर सोने की पसन्दगी किसकी है ?" "मेरी
१०२ / समन्वय के साधक