Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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उस समय का एक विनोद कहने योग्य है। जो हिन्दू हरिजन नहीं हैं, उनके लिए कौन-सा शब्द काम में लिया जाय । ऐसा किसी ने पूछा । तुरन्त कोई बोले, "हरिजनों को जो न अपनाए वह हरि को और धर्म को भी नहीं अपनाते । उनको हरि से और शुद्ध धर्म से दूर गए हुए दुरिजन कहना चाहिए।" यह विनोद उस समय बहुत चला था ।
इन उपवास के दिनों में सरकार के साथ बातचीत चल रही थी । हिन्दू नेताओं ने वचन दिए, किन्तु हरिजनों के उस समय के जबर्दस्त नेता डा० अम्बेडकर आगे आए। उन्होंने सीधा कहा, "ये हिन्दू आज वचन देंगे, कल तोड़ेंगे। उनका भरोसा क्या ? सरकारी कानून के अनुसार हमें हमारे हक मिलने ही चाहिए ।" दिन जाने लगे, बापूजी के प्राण बचाने की आवश्यकता बढ़ने लगी । लोग अम्बेडकर पर दबाव डालने लगे, पर वे तो अपनी बात पर अड़े रहे। यह सारा एक ऐतिहासिक किस्सा था । आज के हरेक युवक को यह याद रखने लायक है ।
अन्त में करोड़ों हरिजन हिन्दू समाज के अन्दर ही रह सके और कम-से-कम कायदे में तो हिन्दू धर्म का एक बड़ा पाप धुल गया। उस समय के हिन्दू नेताओं ने जो वचन दिए, उन्हें पालने की जिम्मेदारी पीढ़ीदर-पीढ़ी स्वीकारनी चाहिए उस प्रसंग पर गांधीजी ने हिन्दू नेताओं ने और उस समय की सरकार ने जो निर्णय किए, वे यरवदा पैक्ट' के नाम से पहचाने जाते हैं।
३१ : आरोग्य और दीर्घायु
आज मेरी उम्र करीब १० के नजदीक है। स्वास्थ्य अच्छा है। कई नये-नये स्नेहियों को आनन्द के साथ आश्चर्य भी होता है, और जब वे सुनते हैं कि गांधीजी के आश्रम में रहते मुझे क्षयरोग हुआ था और गांधीजी ने मुझे इलाज के लिए चाहे वहां जाकर रहने के लिए इजाजत भी दी थी तब उनका आश्चर्य और भी बढ़ता है और वे पूछते हैं, "भारतवासियों की आयु सर्वसामान्य ४० के करीब गिनी जाती है, आदमी ६० वर्ष का हुआ तो वह आराम के योग्य पेंशन के योग्य गिना जाता है और आप तो इस उम्र में नया-नया साहित्य पढ़ते हैं, अपने साहित्य में नये-नये विचार देते हैं और देश-देशांतर में मुसाफिरी भी करते हैं। इसका हमें आश्चर्य होता है । जानने की इच्छा होती है कि ऐसा स्वास्थ्य आपने कैसे सम्भाला ?
"और आप कहते हैं कि आश्रम के दिनों में आपको क्षयरोग भी हुआ था तो उस रोग पर भी विजय कैसे पायी ?"
मैं कहता हूं, आश्चर्य के लिए और भी थोड़ी बातें कहूंगा।
हम छः भाई और एक बहन में मैं सबसे छोटा था । मेरा जन्म हुआ तब पिताजी की उम्र पचास से अधिक होगी। लेकिन उनका स्वास्थ्य अच्छा था । मेरी मां के भाई-बहन बीमार और कमजोर रहते थे, उस खानदान के लोग जल्दी गुजर गये। क्षयरोग मुझे उस खानदान से मिला होगा। बचपन में मैं कमजोर ही
रहता था।
हिमालय जाकर थोड़ी साधना की, लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से उसका कुछ महत्त्व नहीं था। हिमालय में हजारों मील की पैदल मुसाफिरी की। इससे कष्ट सहन करने की शक्ति तो आ गयी, किन्तु हिमालय से लौटने के बाद ही मैं गांधीजी के आश्रम में पहुंचा। वहां का जीवन व्यवस्थित होते हुए भी मुझे क्षयरोग हुआ, यही बताता है कि रोग के बीज खून में सुप्त रूप से दीर्घकाल तक रह सकते हैं ।
- २०० / समन्वय के साधक