Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
View full book text
________________
१. प्रकृति-दर्शन
अर्णव का आमंत्रण
के
समुद्र या सागर जैसा परिचित शब्द छोड़कर मैंने अर्णव शब्द केवल आमंत्रण के साथ अनुप्रास लोभ से ही नहीं पसन्द किया । अर्णव शब्द के पीछे ऊंची-ऊंची लहरों का अखंड तांडव सूचित है। तूफान, अस्वस्थता, अशान्ति, वेग, प्रवाह और हर तरह के बंधन के प्रति अमर्ष आदि सारे भाव अर्णव शब्द में आ जाते हैं । अर्णव शब्द का धात्वर्थ और उसका उच्चारण दोनों इन भावों में मदद करते हैं । इसलिए वेदों में कई बार अर्णव शब्द का उपयोग समुद्र के विशेषण के तौर पर किया गया है। खास तौर से वेद के विख्यात अधमर्पण सूत्र में जो अर्णव-समुद्र का जिक्र है, वह उसकी भव्यता को सूचित करता
ऐसे अर्णव का संदेश आज के हमारे संसार के सामने पेश करने की शक्ति मुझे प्राप्त हो, इसलिए वैदिक देवता सागर सम्राट वरुण की मैं वंदना करता हूं।
जहां रास्ता नहीं है वहां रास्ता बनानेवाला देव है वरुण । प्रभंजन तांडव से जब रेगिस्तान की बालू की लहरें उछलती हैं, तब वहां भी यात्रियों को दिशा- दर्शन करानेवाला वरुण ही है । और अनंत आकाश में अपने पंखों की शक्ति आजमानेवाले त्रिखंड के यात्री पक्षियों को व्योम मार्ग दिखानेवाला भी वरुण ही है । और वेदकाल के भुज्यु से लेकर कल ही जिसकी मूछें उगी हैं, ऐसे खलासी तक हरेक को समुद्र का रास्ता दिखानेवाला जैसे वरुण है, वैसे ही नये-नये अज्ञात क्षेत्रों में प्रवेश करके नये-नये रास्ते बनानेवाले यमराज
अगस्त को हिम्मत और प्रेरणा देनेवाला दीक्षागुरु भी वरुण ही है ।
वरुण जिस प्रकार यात्रियों का पथ प्रदर्शक है, उसी प्रकार वह मनुष्य जाति के लिए न्याय और व्यवस्था का देवता है । 'ऋतम्' और 'सत्यम्' का पूर्ण साक्षात्कार उसे हुआ है, इसलिए वह हरेक आत्मा को सत्य के रास्ते पर जाने की प्रेरणा देता है । न्याय के अनुसार चलने में जो सौंदर्य है, समाधान है और जो अंतिम सफलता है, वह वरुण से सीख लीजिए । और यदि कोई लोभी, अदूरदृष्टी मनुष्य वरुण की इस न्यायनिष्ठा का अनादर करता है, तो वरुण उसको जलोदर से सताता है, जिससे मनुष्य समझ ले कि लोभ का फल कभी भी अच्छा नहीं होता ।
अपना मूल्य घट न जाये इस ख्याल से जिस प्रकार परम-मंगल कल्याणकारी, सदाशिव रुद्ररूप धारण करते हैं, उसी प्रकार रत्नाकर समुद्र भी डरपोक मनुष्य को अट्टहास करनेवाली लहरों से दूर रखता है । कोमल वनस्पति और ग्रह लंपट मनुष्य उसके किनारे पर आकर स्थिर न हो जायें, इसलिए ज्वार-भाटा चलाकर वह सब लोगों को समझाता है कि तुम लोगों को मुझसे अमुक अन्तर पर ही रहना चाहिए।
समुद्र के किनारे खड़े रहकर जब लहरों को आते और जाते देखा, अमावस्या और पूर्णिमा के ज्वार आते और जाते देखा, और बुद्धि कोई जवाब नहीं दे सकी, तब दिल बोल उठा, 'क्या इतना भी समझ में नहीं आता ? तुम्हारे श्वासोच्छ्वास की वजह से जिस प्रकार तुम्हारी छाती फूलती है और बैठती है, उसी प्रकार विराट सागर के श्वासोच्छ्वास की यह धड़कन है, उसका यह आवेग है । जमीन पर रहनेवाले मनुष्य
C
विचार: चुनी हुई रचनाएं / २०७