Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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(मालिक) है। महान होने से उसे 'महात्मा' कहते हैं । 'सर्वात्मा' भी कहते हैं । वेद के अनुसार वह नारायण है।
"ईश्वरः सुख दुःखयोः" इसका, संक्षेप में, भाव यह है :
सुख-दुःख का अनुभव सबको है। इन शब्दों का अर्थ संकुचित भी है और व्यापक भी है। इन्द्रियों को अनुकूल सो सुख और इन्द्रियों के प्रतिकूल सो दुःख—यह है उनका संकुचित अर्थ।
लेकिन केवल इन्द्रियों को नहीं, किन्तु सब तरह के आनंद को हम सुख कहते हैं। दुःख का भी ऐसा ही व्यापक अर्थ है।
यह सुख और दुःख प्राणियों को अथवा मनुष्यों को कहां, कब, कितना मिले, यह हमारे हाथ में नहीं है। इसका कोई नियम भी हम नहीं बना सकते । सुख-दुःख का सारा तन्त्र भगवान के ही अधीन है। इसीलिए ऋषि ने कहा, "नारायणः सुख दुःखयोः ईश्वरः।" परमात्मा ही सूख-दुःख का ईश्वर यानी मालिक है। उसी को 'नारायण' कहते हैं।
मनुष्य के सुख-दुःख उसके अधीन नहीं हैं, किन्तु सुख-दुःख का सदुपयोग कर लेना उसके हाथों में है। सुख और दुःख से मनुष्य अगर अपना अधःपात होने दे, अपनी साधना के द्वारा दोनों का सदपयोग करे. और उन्नति साध ले तो एक ढंग से (अर्थात् नम्र अर्थ में) वह भी सुख-दुःख का ईश्वर बन सकता है।'
१. 'उपनिषदों का बोध' से
ब्राहमविन्द्रा के बाद भी जीवन विमा
आहार में हम दूध पियें या दूध का सार निकालकर घी का सेवन करें? यह एक जीवन-व्यवहार का महत्त्व का सवाल है। हम भारत के लोग दूध में से मक्खन निकालकर उसका भी घी बनाने लगे, ताकि वह जल्दी बिगड़ न जाय । दूसरे लोगों ने दूध को उबालकर उसमें से खोवा तैयार किया, ताकि वह थोड़े में दूध की पुष्टि दे सके और काफी दिन तक टिक सके, और दूसरे लोगों ने दूध का पनीर बनाया, जिसे अंग्रेजी में 'चीज' कहते हैं। उद्देश्य एक ही था कि दूध का सार हमें मिले । दूध का बोझा उठाना न पड़े । घर में या सफर में दूध जैसा पौष्टिक आहार बिना बिगड़े बहुत दिन तक काम आ सके। . कुदरत ने अथवा भगवान ने तरह-तरह के फूल पैदा किए। फूलों में रंग और आकृति की विविधता, कोमलता, ताजगी और यौवन के उपरान्त सुगन्ध भी आ बढ़ी, जिसके कारण हमको न केवल आनन्द मिलने लगा, बल्कि दिमाग को उससे पुष्टि भी मिलने लगी और चन्द लोगों के लिए उसमें से किसी रोग का इलाज भी मिला । फूलों की यह उपयोगिता और फूलों का आकर्षण देखकर मनुष्य ने बगीचे बनाए । फूलों को तोड़कर इकट्ठा करके उसके गुच्छे बना दिए। आगे जाकर मनुष्य इन फूलों में से इत्र भी बनाने लगा। इत्र में फूलों का सार आ गया, ऐसा मानकर इत्र बनाने का एक पेशा शुरू हुआ और ये इनवाले फूलों को उबालकर या और ढंग से फूलों की सुगन्ध को तेल के अन्दर सुरक्षित बनाने लगे। राज-दरबार में और अतिथि-सत्का गुलाब-जल का और तरह-तरह के इत्रों का व्यवहार होने लगा। बड़ी प्रगति हई और संस्कृति आगे बढ़ी।
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