Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

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Page 216
________________ ३२: विश्व-समन्वय-संघ की स्थापना साहित्य कहते हैं तरह-तरह के ऐसे विचारों के संग्रहों को, जो किसी भी भाषा का सहारा लेकर अनुकूल और आकर्षक शैली में व्यक्त किये गये हों। साहित्य में मनुष्य के अनुभवों का, चिंतनात्मक विचारों का, कल्पनाओं का अथवा संकल्पों का संग्रह होता है। मनुष्य के सामने फैली हुई विशाल भौतिक सृष्टि, कल्पनासृष्टि और उसके अंदर मानवी जीवन ने जो पुरुषार्थ किया हो उसका वर्णन, चिंतन और खोज का बयान होता है। मनुष्य-जीवन के जितने भी पहलू हैं उन सबको साहित्य में उद्दीपित किया जाता है। भाषा और शैली तो साहित्य का केवल सहारा ही हैं । साहित्य में प्रधानता तो चिंतनात्मक या वर्णनात्मक और प्रेरणात्मक विचारों की ही होती है। साहित्य सचमुच मनुष्य जाति को संस्कारी, संपन्न और समर्थ बनाने का एक अदभुत साधन है। ऐसे साहित्य की सेवा करना और उससे सेवा लेना जीवन को उन्नत करने का एक महान साधन है। ऐसे साधन के द्वारा हम समाज के वर्तमानकालीन सब व्यक्तियों से, भूतकाल के सब पुश्तों से और जमाने से अपना घनिष्ठ संबन्ध स्थापित कर सकते हैं और भविष्य में आनेवाली जनता की भी थोड़ी-बहुत सेवा कर सकते हैं। साहित्यसेवा सचमुच त्रिकालव्यापी संस्कृति की सेवा है। साहित्य-सेवा के लिए स्थापित संस्थाओं का प्रधान उद्देश्य संस्कृति की सेवा ही हो सकता है । ऐसी सेवा साहित्य के द्वारा करना यह उसकी अपनी मर्यादा होती है, किंतु ऐसी संस्था एक क्षण के लिए भी संस्कृति-सेवा को गौण नहीं बना सकती, बाज़ पर नहीं रख सकती। और आज तो देश की और दुनिया की ऐसी विचित्र हालत हो गई है और ऐसे विकट और जटिल सवाल खड़े हुए हैं कि समाज को बचाना हो, प्रगति के रास्ते पर लाना हो तो संस्कृति के क्षेत्र में प्रत्यक्ष रूप से कार्य किये बिना चारा ही नहीं। जीवन की इस महान आवश्यकता का दर्शन जैसे-जैसे अधिक होता जाता है, संकल्प दृढ़ होता जाता है कि अब उत्तम सेवा तो संस्कृति-समन्वय द्वारा ही हो सकती है । भारत में आकर बसी हुई और पनपी हईं सब संस्कृतियों का एकसाथ विचार करना, आदर के साथ सब की सेवा करना और उनके अन्दर का संघर्ष टालकर समन्वय स्थापित करने के उपायों को ढूंढ़ना और उनका प्रचार करना यह मिशनरी काम किये बिना हम जी नहीं सकते, आगे बढ़ नहीं सकते। महात्मा गांधी की स्थापित आखिरी संस्था का असली उद्देश संस्कृति-समन्वय ही है। समूचे हिन्दुस्तान की संमिश्र अथवा संगम संस्कृति को व्यक्त करने के लिए ही हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग आग्रह के साथ किया है। इसमें विविधता और एकता का समन्वय ही व्यक्त होता है। विचार-प्रचार के द्वारा भारत की सारी जनता परस्पर ओतप्रोत हो जाय और विराट आत्मीयता का अनुभव करके अपने जीवन को सफल करे और विश्व-सेवा के लिए अपने को योग्य बनावे, यही है इस गांधी प्रवृत्ति का उद्देश्य । स्वयं गांधीजी इसे सर्व-धर्म-समभाव, अस्पृश्यता-निवारण, सर्वोदय आदि अनेक शब्दों के द्वारा व्यक्त करते थे । उनकी सारी सेवाएं आत्मशक्ति बढ़ाकर सब को एकत्र लाने के लिए ही थी। इसी सार्वभौम उद्देश्य को दुनिया के सामने रखकर इस दिशा में संस्कृति-समन्वय का काम करना, यही हमारा प्रधान कार्य होगा। संस्था के संचालकों ने इस बात का महत्त्व समझकर प्रस्ताव किया कि 'विश्व-समन्वय संघ' २०२ / समन्वय के साधक

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