Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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कॉलिज के पहले वर्ष में रोम के इतिहास में कोई रस नहीं था; किन्तु पड़ते-पढ़ते उसमें भी रस आने लगा । सारा इतिहास पढ़ लिया । परीक्षा में ३३ प्रतिशत के अंक मिले ही होंगे, क्योंकि मैं पास हो गया। फिर वर्षों बाद रोमन कानून पढ़ा, तब रोमन इतिहास भी फिर से पढ़ लिया। आज मैं मानता हूं कि उस इतिहास के बिना मेरी पढ़ाई अधूरी रह जाती ।
जिसको परीक्षा की पड़ी न हो, डिगरियां मिलें न मिलें, यह बात जिसके लिए एक जैसी हो, 'रस है ' इसीलिए जो पढ़ता हो, उस आदमी को जैसे संस्कार मिल सके, वैसे संस्कार प्राप्त कर मैंने कॉलेज का अभ्यास पूरा किया। भगवान ने मुझे विद्याध्ययन की अभिरुचि पूरी-पूरी दी है। मैं चाहता तो लोकोत्तर विद्वान हो सकता, परन्तु ऐसा कुछ मैं सोचनेवाला न था । सभी विषयों में मुझे रस था, लेकिन वह जीवन तक सीमित था और जीवन का रस आत्मानन्द था । फलस्वरूप मैं अपने को बहुश्रुत कह सकता हूं, विद्वान नहीं ।
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इसी कारण से गांधीजी के आश्रम का जीवन-रस मैंने पूरा-पूरा प्राप्त किया । आश्रम के आदर्शों को पूरे हृदय से अपने में पनपने दिये । किन्तु समाज के सामने एक बड़े आश्रमवासी नेता के तौर पर प्रसिद्धि पाने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी मेरी पद्धति से मुझे स्वयं सम्पूर्ण संतोष मिला, इसलिए इसमें मुझे कोई अफसोस नहीं है। समाज के सामने मैं प्रथम कोटि के साधक के रूप में मशहूर नहीं हुआ, इसकी मुझे परवाह नहीं है। किन्तु आदर्श आश्रमवासी को जो आंतरिक उन्नति मिलती है, वह मुझे मिली है। यह समाधान मेरे लिए काफी है, फिर भले ही लोग मुझे अल्प सन्तोषी मानें। मैं अल्प सन्तोषी नहीं हूं, इतना आत्म-विश्वास मेरे लिए पर्याप्त है ।
७: शिक्षा के द्वारा क्रांति की तैयारी
"अंग्रेजों के शासन में रहना लज्जास्पद है । उस राज को तोड़कर स्वतन्त्र होना ही है।" ऐसे विचारों की चर्चा बहुत छुटपन में हम तीनों भाइयों के बीच अनेक बार होती थी। ऐसे विचार कहां से आये, यह खोजने का प्रयास करता हूं, लेकिन उनका उद्गम नहीं मिलता।
पिताजी के पास से तो ऐसे विचार हमें नहीं मिले थे, उन्होंने देश का इतिहास कभी पढ़ा भी हो, ऐसा मुझे नहीं लगता । नौकरी शुरू की तब से एक सर्व-सामान्य विचार अपनी संस्कृति में सर्वत्र फैला हुआ मैं देखता हूं । "जिनकी नौकरी करते हैं, उनके प्रति वफादार रहना ही चाहिए।" ये विचार पिताजी में मैं स्पष्ट देखता था । अंग्रेज लोग विदेशी हैं, उनका वंश अलग, धर्म अलग, इस देश में राज करने का उनका अधिकार क्या ? ऐसे विचार समाज में सुनाई देते थे। उनका विरोध भी कोई नहीं करता. ये विचार हवा में थे; स्वाभाविक लगते थे, किन्तु उनको स्वीकार करना चाहिए, अंग्रेजों का राज्य हटाने के लिए कुछ करना भी चाहिए - ऐसा वायुमण्डल उन दिनों समाज में था ही नहीं मेरा जन्म हुआ तब सन् १८५७ की प्रवृत्ति और हार को तीस साल भी हुएन थे, तो भी अंग्रेजों का राज्य कायम ही है और लोग उसके आदी हो गये हैं, ऐसे ही विचार सारे वातावरण में फैले थे। “राज्यकर्त्ता विदेशी हैं, विधर्मी हैं, मन में आये सो करेंगे ही, हमारे हित का ख्याल उनके मन में आवे कहां से?" ऐसे विचार लोग प्रकट जरूर करते थे, लेकिन उसके बारे में कुछ करने की वृत्ति कहीं नहीं दीख पड़ती थी। बड़े भाइयों के पास में भी स्वतन्त्रता के विचार सुने नहीं थे। स्कूल जाना, पढ़ाई करना, क्योंकि पढ़ने से ही नौकरी मिलेगी, और जीने के लिए या तो मनुष्य खेती करे, व्यापार करे अथवा
१३४ / समन्वय के साधक