Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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भंग-समिति' नाम दिया। लोगों को मजा आया। वल्लभभाई खुश हुए।
बोरसद-परिषद् का में अध्यक्ष हुआ, इसलिए आश्रम में मेरा अभिनन्दन करने का बापूजी का विचार था। मैंने बापूजी से कहा, "परिषद् का अध्यक्ष होते हुए भी मैं गुजरात प्रान्तीय कांग्रेस समिति का अध्यक्ष नहीं रहना चाहता हूं । वल्लभभाई जानें और उनकी नीति जाने । मैं तो सिर्फ परिषद् का तीन दिन का अध्यक्ष था, ऐसा मानकर अलिप्त ही रहने वाला हूं।" और में अलिप्त ही रहा हो सके तब तक वल्लभभाई hat अनुकूल रहना और मेरा व्यक्तिगत स्वातंत्र्य संभालना यह थी, मेरी नीति ।
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उसके बाद की अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक बेलगांव में हुई। गांधीजी उसके अध्यक्ष चुने गए । श्री गंगाधरराव देशपाण्डे थे उसके स्वागताध्यक्ष । उन्होंने एक महीने के लिए बापूजी से मेरी सेवा मांग ली। बापूजी ने 'हां' कहा। गंगाधरराव ने मुझे सारे कांग्रेस कैम्प की स्वच्छता का काम सौंपा।
श्री गंगाधरराव हंसकर बोले, "काकासाहेब, आपकी सेवा मांगने में और आपको यह काम सौंपने में मेरी चतुराई है। गांधीजी के मन में रचनात्मक काम का बहुत आग्रह है, यह मैं जानता हूं, इसलिए कांग्रेस में उनके रहने के लिए एक सुन्दर खादी मण्डप बनानेवाला हूं और सफाई का काम आपको सौंपा है, वह उत्तम होगा ही। मैंने सोच लिया है कि यदि आपका काम बहुत अच्छा हुआ तो मैं जाहिर में कहूंगा कि देखिये, बेलगांव के हमारे काकासाहेब ने कैसी आदर्श सफाई रखी ? और यदि उसमें गांधीजी को कोई कमी दिखाई दी और टीका हुई तो मैं कहूंगा कि मैंने तो सफाई का काम गांधीजी के अच्छे से अच्छे आदमी को सौंपा था, उससे ज्यादा हम क्या कर सकते हैं ? यदि सफल हुए तो श्रेय मेरा, और कर्नाटक का । न हुए तो 'गांधीजी के आदमी सफल नहीं हुए' ऐसा मैं कहूंगा।" मैंने कहा, "मुझे मंजूर है।" दो हते मैंने रक्खीं। मैंने कहा, "कांग्रेस के अधिवेशन के काम के लिए आपने डेढ़ हजार स्वयंसेवक एकत्र किए हैं और हरद्वीकर जैसे विवेकशील आदमी को यह काम सौंपा है। उन डेढ़ हजार स्वयंसेवकों में से मेरे सफाई काम के लिए मुझे डेढ़सौ स्वयंसेवक चाहिए । लेकिन इस काम के लिए मैं तो उनमें से मात्र ब्राह्मणों को ही पसन्द करनेवाला हूं । गंगाधरराव ने स्वीकृति दी।
स्वयंसेवकों की सभा में मैंने थोड़ा मजाक किया, "मैं गांधीजी के आश्रम का तो हूं, लेकिन मेरी जाति-निष्ठा कहां जायगी ? मैं ब्राह्मण हूं, इसलिए कांग्रेस के लिए पाखाने खड़े करना, साफ करना, इस काम के लिए मुझे पवित्र ब्राह्मण ही पसन्द करते हैं। उनमें भी बेलगांव के और नजदीक के शाहपुर, इन दो शहरों के ब्राह्मण मिलें तो मैं ज्यादा खुश हूंगा। उनके सगे-सम्बन्धी और जातिवाले जब देखेंगे कि हमारे लड़के पाखाने साफ करने को तैयार हुए हैं, तब अभिमान से फूलने का मौका उनको मिलेगा !"
मेरी यह 'जाति-निष्ठा' सुनकर सब हंसे। उसके बाद सभा में से कई लिंगायत ब्राह्मणेत्तरों ने कहा, "आपकी जाति-निष्ठा हम समझे; आपको अभिनन्दन किन्तु हम भी उस काम का थोड़ा पुण्य लेना चाहते हैं।" जबाव में सीधे मुंह से मैंने कहा, “ठीक है, ठीक है, बहुत ही उदारता से आपको भी पुण्य प्राप्त करने का थोड़ा मौका दूंगा। पच्चीस प्रतिशत ब्राह्मणेत्तरों को लेने को मैं तैयार हूं, उससे ज्यादा की मांग मत कीजिए।"
इस काम को लेते समय, मेरी एक दूसरी शर्त भी थी कि मेरे विभाग को 'कन्जरवेटिव' जैसा अच्छा अंग्रेजी नाम न रखें। मेरे विभाग को सीधा देशी नाम दीजिए 'भंगी विभाग' हमने भंगी नाम अप्रतिष्ठित कर दिया है । गाली के तौर पर उसे काम में लेते हैं । पाखाने जाकर जगह को गन्दा करना, यह हम पवित्र मानते हैं और लोगों द्वारा गन्दी की हुई जगह को साफ करने का काम अपवित्र !" लोग समझ गए और मेरी इस बात को भी मान्य कर लिया।
१७४ | समन्वय के साधक