Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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नियुक्त थी। उसमें केवल दो व्यक्ति थे-श्री विनोबा और मैं ।
एक लाख रुपये के इनाम की चर्चा देश-भर में हो चुकी थी, इसलिए ग्रामोद्योगी यन्त्र-विद्या के सर्वोच्च जानकार के तौर पर हम दोनों के नाम की चर्चा भी उस समय बहुत चली। लोगों को आश्चर्य हुआ कि नवजीवन में, विद्यापीठ में और अन्य असंख्य कामों में देश-भर घूमने वाला मैं ग्रामोद्योगी यन्त्रों का ऐसा जानकार कैसे बना?
पूज्य गांधीजी जब राजबंदी होकर यरवदा पहुंचे उस समय समस्त देश की और कांग्रेस की राजनैतिक स्थिति नाजुक थी। देश के सर्वोच्च नेताओं को सरकार ने कैद में बन्द कर दिया था। उनके साथ विचार-विनिमय किए बिना चारा नहीं था। ऐसी परिस्थिति जेल के इतिहास में सरकार को देखकर स्वीकार करनी पड़ी। यरवदा जेल में गांधीजी को मिलकर देश-भर का भविष्य तय करने के लिए सरकार ने अलग-अलग जेलों में से मोतीलालजी, जवाहरलालजी,सरदारवल्लभभाई,श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्री सैयद महमूद और श्रीजयरामदास दौलतराम इतने राजनैतिक कैदियों को यरवदा में एकत्र ला दिया और उनके साथ मिलकर चर्चा करने की सहलियत डाक्टर सप्र और जयकर इन दोनों को कर दी।
इतने महत्त्व की परिस्थिति में भी चौबीसों घण्टे पूज्य बापूजी का ध्यान चर्खे में ही ज्यादा रहा था।
पूज्य बापूजी की यह चर्खा-भक्ति देखकर मैं भी यरवदा में अपना बहुत-सा समय चर्खे को देने लगा। खादी का अर्थशास्त्र तो हमारी चर्चा का विषय था ही। किन्तु शोषणरहित अहिंसक संस्कृति में गांव का महत्व, ग्रामोद्योग की आवश्यकता ग्रामोद्योग, द्वारा हस्त-उद्योगों की कला का विकास करने का महत्व, इन सब चीजों की चर्चा हम दिन-रात करते थे। एक दिन मैंने बापूजी से कहा, "बापूजी, आप तो मेरी गुजराती भाषा की भक्ति, साहित्य का विकास करने की वृति के बारे में सब जानते हैं, किन्तु मुझमें यंत्रोद्योग का दिमाग भी है और उसमें भी मैं सहयोग दे सकता हूं, यह मैं कहना चाहता हूं।"
मेरा यह दावा सुनकर वह हंसे नहीं, यह उनका विवेक था। उन्होंने कहा, "आपको अपना दावा साबित करना पड़ेगा। आज की ही मेरी उलझन मैं आपके सामना रखता हूं। तकुओं पर से सूत उतारने के लिए मुझे एक हाथ में तकुआ पकड़ना पड़ता है और दूसरे हाथ से चर्खे का चक्र घुमाता हूं। अब यदि दो में से एक हाथ छटा रह सके तो बड़ी सहूलियत हो जाय । उसके लिए कोई यन्त्र ढंढ़ निकालो।
“शर्त यह है कि उसके लिए जरूरी सब साधन जेल के अन्दर से ही आप इकट्ठा कर लीजिए । बाहर से कुछ मंगवाना नहीं। ऐसी सहूलियत आप निकाल सकें तो मैं मानूंगा कि आप में यन्त्र-बुद्धि है।"
मैंने तुरन्त कहा, "मंजूर है। जेल में अपनी सेवा के लिए सरकार ने एक यूरोपियन कैदी को रखा है, उस हीलर के पास से ही एल्यूमिनियम के एक-दो टुकड़े ले लूंगा। जेल में मिलनेवाले औजारों से मेरा काम चल जायगा। यह काम मुश्किल नहीं है । आप देखेंगे कि इस काम में कोई उलझन नहीं।"
____ हमारा करार हो गया । ह्वीलर को बुलाकर मैंने अपनी बात समझा दी। सूत से भरा हुआ तकुआ जिसमें टिक सके ऐसी रोमन लिपि के 'यू' जैसी छोटी-सी चीज एक एल्युमिनियम के टुकड़े में से बना दी। उस को बापूजी के चर्खे पर स्क्रू से बिठा दिया। इतना आसान और सहूलियत-भरा उपाय देखकर बापूजी खुश हुए। कहने लगे, "तुम्हारी यन्त्र-बुद्धि के लिए अब एक सर्टीफिकेट लिख देना पड़ेगा।" उस दिन से चर्खे की रचना, तकुआ बिठाने का कोण इत्यादि बारीक-से-बारीक बातों की हमारी चर्चा चलने लगी। स्वयं बापूजी ने जेल में एक नया चर्खा तैयार किया । हम उसको गांधी-चर्खा कहना चाहते थे, किन्तु बापूजी ने उसे नाम दिया यरवदा चक्र । उसकी पूरी कल्पना में शुरू से अन्त तक मेरा साथ और विचार-सहयोग थे ही।
यरवदा के थोड़े महीनों के अनुभव से बापूजी को यकीन हो गया कि मुझमें खादी के अर्थशास्त्र के
१९६ / समन्वय के साधक