Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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किन्तु किन्तु उन्हें राजनैतिक बातों से ज्यादा लगाव था। व्याख्यान अच्छे देते थे। पहले-पहल तो वल्लभभाई के साथ गिदवानी की अच्छी बनती थी, किन्तु आगे चलकर वल्लभभाई उनपर नाराज हुए। मेरे मित्र जीवतराम कृपालानी भी सिंधी थे। बीच-बीच में पूज्य बापूजी को और मुझे मिलने आया करते थे। एक दिन वल्लभभाई ने कहा, "विद्यापीठ के लिए मैं कृपालानी को लाना चाहता हूं । काका चाहें तो कल ही कृपालानी को ला सकते हैं ।"
वल्लभभाई को राजी करने की मेरी नीति तो थी ही। मैंने कृपालानी को बुलाया । वे तुरन्त आ गए। उन्होंने आते ही गिदवानी से कहा, "भले आदमी, काका को खोकर आपने बड़ी भारी भूल की है । काका हैं. गांधीजी के भरोसे के आदमी और गुजराती समाज में उनकी जड़ें मजबूत हैं। ऐसा स्थान कभी भी आपको मिल नहीं सकेगा।" यह बात कृपालानी ने खुद मुझे उस वक्त कही थी।
उसके बाद विद्यापीठ में कृपालानी का स्थान कितना और गिदवानी का कितना, यह बात चली। वल्लभभाई का पूरा सहारा कृपालानी को था, इसलिए गिदवानीजी को थोड़े ही दिनों में विद्यापीठ छोड़नी पड़ी। कृपालानी की अपेक्षा ऐसी थी कि मैं फिर से विद्यापीठ में जाऊं किन्तु उसी असें में मुझे क्षयरोग हो गया और स्वामी ने मुझे दो-तीन जगह ले जाने के बाद पूना के पास सिंहगढ़ में रखा ।
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गुजरात विद्यापीठ का सारा भार कृपालानी के सिर पर आ गया । दक्षिणा मूर्ति के नानाभाई भट्ट भी विद्यापीठ में पूरा रस लेते थे। सम्भव है कि उसी अर्से में नानाभाई विद्यापीठ के कुलनायक नियुक्त हुए हों। भारतीय संस्कृति का गहरा अध्ययन करने के लिए हमने पुरातत्व मंदिर की स्थापना की थी। इसके लिए गांधीजी के अनन्य भक्त श्री पूजाभाई हीराचन्द ने श्रीमद् राजचन्द्र के स्मरणार्थ बड़ा दान दिया।
श्री राजचन्द्र एक जैन आध्यात्मिक साधक थे । गांधीजी के मन पर उनका अच्छा प्रभाव था। गांधीजी उनसे प्रभावित हुए। कई लोग तो उनको गांधीजी का गुरु मानते थे । तब गांधीजी को जाहिर करना पड़ा कि यह बात सही नहीं है। श्री पूजाभाई भी जैन थे हमारे अध्यापक मण्डल में श्री रसिकभाई परीख
थे । इसलिए कोई आश्चर्य नहीं था कि पुरातत्व मंदिर में जैन धर्म के अध्ययन को सबसे महत्व का स्थान था । इस तरह पुरातत्व मंदिर में पंडित सुखलाल जी संधवी, मुनि जिनविजयजी, बेचरदास दोशी इत्यादि जैन विद्वानों को हम आकर्षित कर सके । मैंने सोचा कि सनातनी हिन्दू धर्म से अलग होनेवाले जैन धर्म के साथ-साथ बोद्धधर्म का अध्ययन भी चलना चाहिए। बौद्धधर्म के साधारण विद्वान् धर्मानन्द कौसाम्बी को मैं खींच लाया। वे मूल गोवा के थे। छुटपन में खास शिक्षा नहीं पाई थी किसी की मदद के बिना सिलोन (श्रीलंका), ब्रह्मदेश और तिब्बत जाकर बौद्धधर्म का उन्होंने उत्तम अध्ययन किया था। आगे जाकर उनको रूस से आमंत्रण आया । अमरीका से आमंत्रण आया और वे प्रकांड पंडित माने गये । बौद्धधर्म समझाने के लिए उन्होंने मराठी में बहुत कीमती किताबें लिखी हैं, जिनका अनुवाद गुजराती, हिन्दी, बंगाली आदि अनेक भाषाओं में हुआ है।
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कृपालानी के और मेरे एक मित्र थे- नारायण मलकानी उनको कृपालानी विद्यापीठ में ले आये। मालूम नहीं, क्यों, किन्तु गिदवानी, कृपालानी और मलकानी तीनों सिंधी थे, उनका गुजराती प्रोफेसरों के साथ पूरा मेल नहीं था। रामनारायण पाठक, रसिकलाल परीख जैसे साथी, खानगी तौर से मेरे पास आकर चर्चा करते थे। मैंने उनसे कहा, "कृपालानी और मलकानी— दोनों मेरे पुराने अंतरंग मित्र हैं। उनमें अपने-अपने स्वभाव की खासियत होगी, किन्तु उनमें 'सिंधीपन' बिल्कुल नहीं है । उनके साथ दिल खोलकर बातें करनी चाहिए। सब ठीक हो जायेगा ।" वे कहने लगे, "आप विद्यापीठ में आयेंगे तभी कुछ हो सकेगा ।" मेरी तैयारी नहीं थी ।
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समन्वय के साधक