Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 192
________________ इतना याद है : सरकार ने देख लिया कि अब सरदार के साथ समझौता किये बिना चारा नहीं। इसलिए उसने 'ब्रुमफिल्ड और दूसरे एक गोरे अमलदार को विष्टि के लिए नियुक्त किया। उनके सामने किसानों का केस पेश करने के लिए वल्लभभाई की ओर से दो लोग नियुक्त हुए। उनमें एक थे मेरे सर्वोत्तम साथी नरहरिभाई । मैं था विद्यापीठ का आचार्य और कुलनायक (वाइस नासलर) और नरहरिभाई थे विद्यापीठ के महामात्न । मेरा सब काम नरहरिभाई संभालते थे। उनके बिना मैं अपंग-सा हो जाता। फिर भी आनाकानी किए बिना नरहरिभाई को इस काम के लिए मैंने जाने दिया । नरहरिभाई ने किसानों की परिस्थिति, खेती के सब कानून, इत्यादि सारी चीजों का उत्तम अभ्यास करके प्रजा का केस सरकार के सामने ऐसी मजबूती से रखा कि ब्रुमफिल्ड तो आश्चर्यचकित रह गये । शास्त्रीय ढंग से किसानों की परिस्थिति का विचार करने के लिए नरहरिभाई ने एक 'एकम यूनिट' तैयार किया था । उसे ब्रूमफिल्ड 'मिस्टर पारीख का एकम' कहते थे। अन्त में नरहरिभाई की विजय हुई। किसानों को जो चाहिए था, सो मिल गया। सरकार की आबरू सम्भालने के लिए एक कलम उसमें लिखी गई कि 'जो किसान धनवान हैं उनको चाहिए कि वे स्वेच्छा से सरकार का बाकी महसूल अदा कर दें। इसमें सरकार कोई दबाव नहीं डालेगी' इत्यादि । इसी सत्याग्रह के दरमियान नरहरिभाई के साथ मेरी बातचीत हुई थी, जो मुझे याद है । एक समय ऐसा आया था कि समझौते के लिए नरहरिभाई की सेवा हमेशा के लिए दे देनी पड़े। तब मैंने उनसे कहा, "नरहरिभाई, आप जानते हैं कि आपके बिना मैं विद्यापीठ चला नहीं सकता। मेरा सारा आधार आप पर है। फिर भी यदि वल्लभभाई का आग्रह हो, और आपके बिना काम बिगड़ता ही हो तो आपको विद्यापीठ से मुक्त करने को तैयार हूं।" एक क्षण नरहरिभाई ने मेरी ओर देखा, और निश्चयात्मक आवाज में कहा, "लेकिन मैं तो जाने को तैयार नहीं। मेरी प्रथम निष्ठा विद्यापीठ के प्रति है। आपके प्रति है। आप उदार होकर मुझे छोड़ने को तैयार हो जायें, किन्तु मैं छूटने को तैयार नहीं । यह मेरा निश्चय अचल है ।" ऐसा था नरहरिभाई का और मेरा सम्बन्ध नरहरिभाई के शब्द मैं कभी भूल नहीं सकता, "मैं जाने को तैयार नहीं ।" २० : नरम होते हुए भी तेजस्वी गांधीजी भारत आए, तब अपने को 'नामदार गोखले के शिष्य होना' उन्होंने सबसे पहले जाहिर किया। इसलिए नरम दल के प्रतिष्ठित नेताओं के साथ उनका अच्छा मिलाप होने लगा। लेकिन हम क्रान्तिकारी लोग जानते थे कि सिद्धान्त के अनुसार सरकार की भी कदर करनी चाहिए, ऐसा मानने वाले गांधीजी, "सरकारी अन्याय कभी भी सहन नहीं करेंगे।" उनकी नरम फिलासॉफी जोशहीन नहीं थी, किन्तु उदार थी 'विरोधी की भी कदर करनी चाहिए, उनके दृष्टि-बिन्दु से भी सोचना चाहिए। ऐसी वृत्ति से, उदारता से वे चलते थे। लोकमान्य तिलक, बापूजी की यह खासियत अच्छी तरह समझ गए थे। एक दिन कहने लगे, " मि० गांधी, इस १७८ / समन्वय के साधक

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336