Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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"जहां हम क्रांतिकारी अंग्रेज राज्यकर्ता के खिलाफ जनता को उकसा नहीं सके, लड़ने को तैयार नहीं कर सके, वहां गांधीजी सफल हुए हैं। किसी को मारो मत, मकान जलाओ मत, रास्ते तोड़ो मत, और फिर भी सरकार का काम बिलकुल रुक जाय, ऐसा कदम उठाओ, और जनता के द्वारा उसका अमल कराओ, यह नयी लश्करी लड़ाकू पद्धति क्या मामूली सी है ? जैन लोग अहिंसा का प्रचार करते हैं, वैष्णव भी अहिंसा को मानते हैं, किन्तु गांधीजी ने अहिंसा में जो क्षात्र-तेज दाखिल किया है, वह अनोखा ही है। यह सूझ उनको सौराष्ट्र के विद्रोही लोगों से मिली होगी; किन्तु उस कला को गांधीजी ने अध्यात्म और युद्धनीति दोनों की दीक्षा दी है। यह खबी यदि हम न समझ सकें तो हम कैसे क्रान्तिकारी और युद्ध कला-विशारद भी कैसे?
"गांधीजी की 'अहिंसक तेजस्वी मानव-संस्कृति दुनिया में सफल हो या न हो, (यथा-समय सफल होगी ही, ऐसा मेरा विश्वास है) किन्तु यह गांधी-पद्धति की युद्ध-नीति हमारी संस्कृति के लिए अत्यन्त अनुकूल है और आज के युग में सफल होने योग्य है। इसलिए गांधीजी को स्वातन्त्र्य युद्ध के एक अद्भुत सेनापति मानकर उनके पीछे-पीछे जाना मैंने तय किया है।"
मेरी इस दलील का असर हआ। कई लोगों के जीवन पर यह असर स्थाई हो गया।
• और इसीलिए आप देखेंगे कि गांधीजी के सत्याग्रह में, असहयोग में और ऐसे सब लड़ाक कार्यक्रमों में क्रान्तिकारी दल के लोग ही ज्यादातर आगे आने लगे।
गांधीजी ने देख लिया कि कानून-भंग जैसे उग्र सत्याग्रह के लिए लाखों लोगों को तैयार करना मुश्किल है, और आन्दोलन के दरमियान उनको अहिंसक रखना उससे भी ज्यादा कठिन है। तब उन्होंने सत्याग्रह को असहयोग का व्यापक रूप दिया।
सरकारी शिक्षण का त्याग, सरकारी इल्काबों का त्याग और सरकारी कामों का त्याग । इस तरह का विविध कार्यक्रम उन्होंने देश के सामने रखा। साथ-साथ कानून बनानेवाली और राज्य शासन के साथ गहरा सम्बन्ध रखने वाली कौंसिलों का बहिष्कार भी बापूजी ने सुझाया। उसमें उनको कल्पनातीत सफलता मिली। अंग्रेज सरकार तो सहम ही गई ! जो देश-नेता कायदा कौंसिल में सरकार के सामने व्याख्यान देकर अपनी बुद्धि की चमक दिखाते थे वे ही देश के सामने लाखों की मेदनी को असहयोग के समर्थ सिद्धान्त समझाने में अपनी बुद्धि में नयी तेजस्विता विकसित करने लगे !
___आखिर सरकार ने बापूजी को जेल में बन्द कर दिया, स्वराज्य के आन्दोलन में मंदी आई, और कौंसिलों में जाकर अपनी बुद्धि का तेज प्रकट करनेवाले लोग बेकाम हो गए।
मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजनदास, विट्ठलभाई पटेल जैसे नेताओं ने कौंसिल में प्रवेश कर अन्दर से सरकार का विरोध करने की नयी नीति देश के सामने रखी। गया में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। दांडी-कूच में वे परिवर्तन नहीं करा सके। कौंसिल प्रवेश करने में पीछे हठ है ऐसा कहनेवाले दल के नेता श्री राजगोपालाचारी उस समय पहली बार देश के सामने झलक उठे।
फिर भी राजनैतिक जीवन के टुकड़े हुए सो हुए।
गया-कांग्रेस में मैं 'नवजीवन' का प्रतिनिधि होकर उपस्थित हआ था, तबसे कांग्रेस के राजकरण में मुझे भाग लेना पड़ा। देश के चिन्तन में और स्वराज्य प्रवत्ति में टुकड़े हुए, उसका मुझे दुःख था। मैं गांधीजी का आदमी कट्टर-से-कट्टर 'नाफेरवादी' था। उस भूमिका को छोड़ने की मुझे तनिक भी इच्छा नहीं थी।
यह होते हुए, जो लोग कौंसिल में जाना चाहते थे उनको 'गांधी-द्रोही, कांग्रेस-विरोधी, स्वराज्य-द्रोही' कहने की मेरी तैयारी नहीं थी। मैंने गहरा चिन्तन किया। मुझे एक रास्ता सूझा ।गांधीवादी जगह-जगह कहते थे, "नरम दल के मॉडरेट लोग भले कौंसिलों में जायं, हम कांग्रेसवालों को कौंसिलों में नहीं जाना चाहिए।"
१८० / समन्वय के साधक