Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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सब परिवर्तन प्रसन्नता से सहन करने की शक्ति आई ।
आश्रम में हमारे पड़ोस में किशोरलालभाई और उनकी पत्नी गोमतीबहन रहती थीं। उनके साथ काकी की गहरी दोस्ती जम गई महादेवभाई की पत्नी दुर्गाबहन के साथ भी आगे चलकर गुजरात विद्यापीठ चलाते समय जब असहयोग आन्दोलन शुरू हुआ तब रात-दिन काम करने से मुझे क्षय रोग हुआ। जेल जीवन से वह बढ़ गया। जेल में एक अंग्रेज लश्करी डाक्टर मंजर डाइल जेल सुपरिटेंडेंट बनकर आया। प्रथम तो उसने मेरे साथ सख्ती बरती, लेकिन उसने देखा कि मैं आश्रमवासी अपनी ही सख्ती का आदी हूं। जेल से किसी तरह से सहूलियत नहीं मांगता, तब धीरे-धीरे हमारी दोस्ती हुई। मेरे पास आकर खड़े-खड़े खूब बातें करता । यह देखकर जेलवाले मुझे सहूलियतें देने को आतुर थे मुझे ऐसी सहूलियतें लेने से इन्कार था। जब डाइल ने देखा कि मुझे तो क्षय रोग है, तब उसने मुझे जेल के अन्दर हो सके, इतनी सहूलियतें दीं। औषधि और बुराख भी ठीक मिलने लगे और तबीयत सुधार कर मैं जेल से बाहर आया ।
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ग्यारह महीनों का मेरा वियोग काकी ने बड़ी हिम्मत से सहन किया ।
बहुत प्रयत्न और डॉक्टर तलवलकर ने काकी के स्वास्थ्य की तरफ पूरा-पूरा ध्यान दिया फिर भी उसकी तबीयत सुधरती ही नहीं थी तब लाचारी से मैं उसे मायके छोड़ आया ।
वहां उसकी तबीयत कुछ सुधरी भी किन्तु फिर से बीमारी ने जोर किया। वह वापस आश्रम आई तब मैं विद्यापीठ में रहने गया था । आश्रम में मेरा घर नहीं रहा था, इसलिए काकी को महादेवभाई के घर रखा । सन् १९२६ में साबरमती आश्रम में ही काकी का देहान्त ४० वर्ष की अवस्था में हुआ । चि० सतीश और बाल भी तब साथ ही थे। साबरमती के किनारे उसका देह हमने अग्नि को अर्पण किया और केवल उसकी स्मृति ही शेष रह गई ।
मेरे आश्रम - जीवन के साथ पूर्णरूप से एक होकर काकी ने मुझे और मेरे साथियों को संतोष दिया था। किन्तु आश्रम- जीवन उसका स्वयं का आदर्श नहीं था, इसलिए मैं उसे अनेक बार मायके जाने देता। उसकी मां के प्रति सारे समाज का आदर था। मेरे मन में भी उनके प्रति पूज्य भाव था ।
१० :: पत्नी की देश-भक्ति
काकी के विचार-स्वातन्त्र्य की बापूजी के मन में कदर थी। काकी गुजराती समझ सकती, किन्तु बोल नहीं पाती । महादेवभाई के साथ इसीलिए छूट से बात कर सकती थी। महादेवभाई भी काकी के साथ चर्चा करने के लिए हमारे रसोई घर में आकर बैठते थे कोई खास बात हो तब पूज्य बापूजी भी काकी के साथ चर्चा करते थे और अपनी बात उसे समझाने हमारे रसोईघर में आये थे। ऐसे दो प्रसंग विशेष कहने योग्य हैं।
बापूजी ने जब आश्रम के पुरुषों को आश्रम के रसोईघर में साथ देने को कहा, तब काकी ने कहा, "ऐसा करने में बापूजी ने स्त्री जाति की मानो 'दुश्मनी' की है।"
काकी का यह विचार महादेवभाई ने बापूजी तक पहुंचा दिया और बापूजी अपनी दृष्टि विस्तारपूर्वक काकी को समझाने के लिए हमारे यहां आये। काकी मराठी में बोलती थी और बापूजी को समझाने का काम महादेवभाई करते और बापूजी की बात काकी अच्छी तरह न समझ सके तब मराठी में समझाने का काम भी महादेवभाई का रहता। उन दोनों की ऐसी चर्चाओं में मैं बीच में नहीं रहता था।
१४४ | समन्वय के साधक