Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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को दो-एक महीने में पूरा करके मैं वर्धा वापस आया। तभी हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने इन्दौर के अधिवेशन का अध्यक्ष-स्थान दुबारा गांधीजी को सौंपा।
मद्रास की ओर के इस काम के कारण मैं हिन्दीमय हो गया था। यहां गांधीजी ने इन्दौर के सम्मेलन के सामने प्रस्ताव रखा कि दक्षिण के चार प्रान्त के उपरान्त बाकी देश में जहां हिन्दी भाषा बोली नहीं जाती वहां हिन्दी का प्रचार संगठित रीति से चलाना चाहिए। इस प्रस्ताव को टंडनजी ने पूरे उत्साह से स्वीकार किया और यह काम सम्मेलन की ओर से ही होना चाहिए, इसलिए मुझे भी सम्मेलन में ले लिया। अब तो यह मेरा जीवन-कार्य-सा बन गया। सन् १९३४ से १९४२ तक यानी आठ साल यह काम मैंने पूरी निष्ठा से और उत्साहपूर्वक किया । उसमें आशातीत सफलता मिली। यही काम यदि निर्विघ्न चला होता, तो देश का वायुमण्डल अलग ही हो गया होता। आज जो लिख रहा हूं उसके पीछे मेरा अनुभव, भारतीय इतिहास का मेरा अध्ययन और गांधीजी के पास से मिली जीवन-दृष्टि इन तीनों का समन्वय है।
उत्तर भारत में हिन्दी बोलनेवालों का मानस समझने की आवश्यकता है। उनकी संकुचितता ही हिन्दी प्रचार के लिए बाधा रूप हुई, यह बात सही है। फिर भी उनको अन्याय न हो, इसलिए उनकी दष्टि सहानुभूतिपूर्वक समझने के लिए हमारे छुटपन की राष्ट्रीयवृति को लोगों का मानस समझाना पडेगा, जिससे हिन्दीवालों का मानस भी एक तरह से राष्ट्रीय था, ऐसा हम समझ सकेंगे।
अंग्रेजों का राज्य जब इस देश में मजबूत होने लगा और उसके खिलाफ हमारे राजाओं ने और सेना के नेताओं ने सन् १८५७ में अखिल भारतीय स्तर पर बगावत की। उसमें वे हार गए। उसके बाद का भारतीय वायु मण्डल समझ लेना चाहिए।
उस समय प्रतिष्ठित और देशप्रेमी लोगों का एक बड़ा पक्ष था, जिसके सर्वोपरि नेता न्यायमूर्ति रानाडे माने जाते थे।
महादेव गोविन्द रानाडे रूढ़िवादी हिन्दू समाज के दोषों से बहुत अकुलाए हुए, किन्तु अत्यन्त धर्मनिष्ठ एक बडे विद्वान थे। उन्होंने पुरानी और नई विद्या के अपने जैसे ही निष्णात लोगों को एकत्र करके, बंगाल के ब्रह्म-समाज के जैसा ही एक प्रार्थना-समाज महाराष्ट्र में स्थापित किया । अच्छे चारित्र्य के कारण, विद्वत्ता के कारण और सरकारी नौकरी में अत्युच्च स्थान पर होने के कारण उनकी प्रतिष्ठा अत्यधिक थी। लोगों को वे समझाते थे कि अंग्रेजों का राज्य हुआ, यह ईश्वरीय योजना ही थी। हमारे लोग उनके खिलाफ लड़े, सफल न हए । अंग्रेजों की विद्या में आधुनिकता है, सुधार का बल है। हमें भक्तिपूर्वक और निष्ठापूर्वक अंग्रेजों का राज्य मान्य करना चाहिए। उस राज्य को मजबूत करने में ही हमारा हित है, हमें जनता को भी ईश्वरीय योजना समझानी चाहिए। हमारे सामाजिक दोष हम दूर करेंगे। अन्दर की कमजोरियां निकाल देंगे, तब ये ही अंग्रेज लोग अपने पर खश होकर 'ब्रिटिश साम्राज्य के अन्दर का स्वराज्य' हमको धीरे-धीरे देंगे। इसी में हमारा कल्याण है। राज्य-निष्ठा, संसार-सुधार, शिक्षण का प्रचार, उद्योग-हुनर फिर से सजीवन करने के लिए स्वदेशीवत्ति का प्रचार यही हमारी अपनी राष्ट्र-नीति होनी चाहिए। ऐसे लोगों ने ही कई उदार दिल के अंग्रेजों की प्रेरणा और सलाह से कांग्रेस की स्थापना की (सन् १८८५ में) और उसके लिए अंग्रेजी राज्य के आशीर्वाद प्राप्त करने के प्रयत्न किए।।
इस प्रतिष्ठित नेताओं के पक्ष के खिलाफ एक राष्ट्रीय पक्ष पैदा हुआ, जिनके नेता प्रथम विष्ण शास्त्री चिपकूलकर थे। आगे जाकर इसी राष्ट्रीय पक्ष के मुख्य नेता हुए बालगंगाधर तिलक। उनको प्रजा ने
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