Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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"अब लिपि का सवाल लीजिए। भारत में हरेक भाषा की अपनी अलग लिपि है। उसमें राजभाषा के लिए कौन सी लिपि पसन्द करनी है ? यह सवाल हमारे सामने आया। आज जैसे ज्यादातर संस्कारी लोग अंग्रेजी भाषा की रोमन लिपि को अंतर्राष्ट्रीय लिपि मानने को तैयार हैं, उसी तरह उन दिनों फारसी लिपि तीन खण्ड में-एशिया, दक्षिण यूरोप और अफीका में चलती थी। उसी लिपि को हमने उर्दू के लिए पसन्द किया। उस लिपि को पूरी तरह स्वदेशी बनाने के लिए हमने उसमें थोड़े सुधार भी किए । राज्यकर्त्ता होते हुए, हमारा अधिकार और आग्रह छोड़कर राष्ट्रभाषा के लिए हमने प्रजामान्य उर्दु को स्वीकार किया और उसे चलाया। अब उस अखिल भारतीय राजभाषा को छोड़कर हिन्दुओं की खातिर हिन्दी स्वीकारने को आप कहते हैं, यह कहां तक योग्य है ? यह आप ही सोचिए जिसे आप उर्दू लिपि कहते हैं वह फारसी लिपि लिखने में आसान है। उस लिपि को छोड़कर रोमन लिपि लेने को आप कहें तो हम समझ सकते हैं, किन्तु नागरी लिपि हमारे माथे क्यों लाद रहे है ?"
यह थी एक सम्पूर्ण राष्ट्रीय मुस्लिम नेता की दलील और भूमिका। मैं समझ गया कि हिन्दी प्रचार में हम चाहें उतने सुधार करें और अरबी-फारसी शब्दों का बिलकूल विस्तार न होने चाहिए, ऐसी नीति चलाएं तो भी मुसलमान पूरे उत्साह से हिन्दी प्रचार में शामिल नहीं होंगे। अंग्रेजी का पक्ष वे छोड़ेंगे नही। चन्द मुसलमान गांधीजी के पक्ष में आएंगे। यहां की संस्थाओं में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी। मुसलमान होने से उनको अपने यहां कुछ लाभ भी मिलेगा। किन्तु राष्ट्रीय सवालों में समस्त मुसलमान कौम की ओर से हमें कोई सहायता मिलनेवाली नही है। भारत में रहनेवाले सामान्य मुसलमान परिस्थिति के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल होकर रहेंगे, लेकिन उनके हृदय तो कौमी मुसलमान नेताओं के पीछे ही जायेंगे।
राष्ट्रीयवृत्ति के एक नेता सुन्दरलालजी ने महात्माजी से कहा, "हिन्दी की व्याख्या आप चाहें जितनी व्यापक करें, उसमें सारे-के-सारे उर्दू शब्दों को स्वीकार करें, तो भी जब तक उनका नाम हिन्दी है तबतक आपकी राष्ट्रभाषा की प्रवृत्ति हिन्दू राज की प्रवृत्ति ही मानी जायगी। इसलिए हिन्दी और उर्दू दोनों नाम छोड़कर पूर्ण राष्ट्रीय व्याख्या की राष्ट्रभाषा को हिन्दुस्तानी नाम दीजिए और उसके लिए नागरी तथा उर्दू दोनों लिपि मान्य रखिए। तभी मुसलमानों की शंका दूर होगी।"
सुन्दरलालजी की बात महात्माजी को जंची और उन्होंने कुछ परिवर्तन करने का विचार किया। __ अब राष्ट्रभाषा का सारा भार लेकर मैं देशभर में खूब घूमा था। लोगों की वृत्ति मैं समझ गया था। गांधीजी के विचारों का लोगों पर क्या और कितना प्रभाव पड़ता है, वह मैं जानता था और समय-समय पर उसकी रिपोर्ट भी गांधीजी को देता था। मैंने गांधीजी से कहा कि बहुत से मुसलमान उर्दू के लिए "हिन्दुस्तानी' शब्द काम में लेते हैं, इसलिए सामान्य जनता हिन्दुस्तानी का अर्थ उर्दू ही करती है। नागरी के साथ उर्दू को भी राष्ट्रीय लिपि मानेंगे तो सारे देश में उसका प्रचार नहीं हो सकेगा। संस्कृत के कारण कई बंगाली और मद्रासी लोग भी नागरी लिपि जानते हैं। राष्ट्रीय एकता की खातिर लोग मुश्किल से नागरी लिपि सीखने को तैयार होंगे, किन्तु दो लिपियों का बोझ स्वीकारने जितनी राष्ट्रीयता लोगों में विकसित नहीं हुई है। नागरी लिपि को ही सर्वमान्य करने के लिए उसमें कुछ जरूरी सुधार करने की कोशिश में कर रहा हूं, उसमें मेरी शक्ति का अन्त आ गया है। उर्दू लिपि का प्रचार करना आसान नहीं। वह लिपि अधूरी है। कई बार उसमें लिखने में गलतियां हो जाती हैं। उच्चारण के साथ लिपि का पूरा मेल नहीं, इसलिए यह लिपि सार्वत्रिक हो नहीं सकती।
कई मुसलमान साफ-साफ कहते हैं, "हिन्दुस्तानी की आड़ में गांधीजी हिन्दी ही चलाना चाहते हैं ; इसलिए हमें उसमें शामिल नहीं होना चाहिए।"
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १६७