Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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उत्तर भारत के हिन्दीवाले कहते हैं कि हिन्दुस्तानी की आड़ में उर्दू ही चलेगी।
सारी परिस्थिति गांधीजी को पूरी तरह समझाने के बाद उनकी आज्ञा के अनुसार चलना, यह मेरी मनोवृत्ति थी। गांधीजी ने अपना आग्रह कायम रखा। उनकी नीति स्वीकार कर उसके अनुसार काम करने के लिए मेरे साथ चि० अमृतलाल नाणावटी रह गए। उन्होंने उर्दू लिपि सीखने के लिए एक बालपोथी तैयार की। स्वराज्य के आन्दोलन में जब हम जेल में थे तब अमृतलाल नाणावटी ने ही हिन्दुस्तानी का काम जीवन्त रखा और गांधीजी के आशीर्वाद प्राप्त किए नागरी उर्दू लिपि-बोध जैसी एक किताब तैयार हुई और दोनों लिपियों में हिन्दुस्तानी की परीक्षाएं ली जाने लगी।
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पूर्व-पश्चिम भारत के आठ प्रान्तों में राष्ट्र भाषा प्रचार का काम बरसों मैंने किया था। एक-एक प्रान्त में एक-एक संस्था स्थापित की थी। श्री पुरुषोत्तमदास टंडन के साथ मेरा सहयोग बढ़ा था, वे मुझ पर खुश थे। हिन्दुस्तानी शब्द और दो लिपि का स्वीकार दोनों का उनका विरोध था। मैंने कहा, "इतना मौलिक और मूलगामी विरोध हो तो गांधीजी की प्रवृत्ति सम्मेलन के हाथ में नहीं रखी जा सकती, उसको स्वतन्त्र करना होगा।" टंडनजी ने कहा कि सारी प्रवृत्ति आप ही ने संगठित की है। गांधीजी चाहें और पूरी प्रवृत्ति को सम्मेलन से अलग करें तो उसे मैं सहन करूंगा, किन्तु गांधीजी की नयी हिन्दुस्तानी नीति को हम कभी स्वीकार नहीं कर सकेंगे।
इतनी बात होने के बाद और टंडनजी की भले ही लाचारी से दी हुई सम्मति लेकर में गांधीजी के पास गया। मैंने उनसे कहा, "इस समय आप हिन्दुस्तानी प्रचार के बारे में मौन रहें तो अपनी आठ प्रान्तों की प्रवृत्ति सम्मेलन से स्वतन्त्र कर लेंगे। टंडनजी की सम्मति मैंने प्राप्त की है । वे सम्मेलन को समझायेंगे । स्वतन्त्र होने के बाद इतनी बड़ी संस्था द्वारा हिन्दुस्तानी का प्रचार हम क्रमानुसार चलायेंगे। यह सारी संस्था यदि सम्मेलन को सौंप देंगे तो फिर सारे भारत में हिन्दुस्तानी के नाम से दो लिपि का प्रचार अशक्य होगा। मैं तो देश भर में आपकी बात लोगों को समझाऊंगा। किन्तु देश में यह बात जड़ नहीं पकड़ सकेगी। उपरान्त भारत की तमाम प्रादेशिक भाषाओं के लिए नागरी लिपि स्वीकार की जाय इस तरह का प्रयत्न में कर रहा हूं कर्नाटक में उसका आरम्भ हुआ है। बंगाल में सख्त विरोध है; वहां नागरी लिपि में बंगाली साहित्य प्रकाशित करेंगे । रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मैंने इजाजत भी ले रखी है। इस हालत में अखिल भारतीय एक लिपि प्रचार की जगह राष्ट्रभाषा के लिए दो लिपि का प्रचार शक्य हो, ऐसा मुझे नहीं लगता।" इतना सारा समझाने के बाद भी गांधीजी ने मेरी एक न मानी। आठ प्रान्त का राष्ट्रभाषा प्रचार का काम सम्मेलन से स्वतन्त्र करने की नीति को मैं प्रारम्भ करूं तब तक बापूजी वातावरण को अस्वस्थ न करें, यह मेरी विनती बापूजी ने सुनी नहीं । उनकी नीति का विरोध का वातावरण सारे देश में सुलग उठा । उसका लाभ लेकर टंडनजी ने गांधीजी को कहा, "आठ प्रान्त का संगठन आपने किया है, यह सब काकासाहेब के धम से हुआ है, यह मुझे मान्य है, किन्तु यह प्रवृत्ति आपने सम्मेलन के नाम से शुरू की, हिन्दी के नाम से आजतक काम किया; इसलिए यह प्रवृत्ति हमें सौंप दें, उसी में न्याय है ।"
गांधीजी ने कहा, "वह सारी प्रवृत्ति आपको सौंप कर हिन्दुस्तानी के नाम से हम नई प्रवृत्ति खड़ी करें तो आपको कोई आपत्ति होगी ?" टंडनजी ने खुश होकर कहा, "आप जरूर एक नयी संस्था खड़ी करें, उसको मैं आशीर्वाद दूंगा । हमारी प्रवृत्ति हमें वापस दे दीजिए तो काफी है ।" गांधीजी ने वैसा किया। थोड़े ही दिनों में स्वराज्य के आन्दोलन में हम सब जेल गए। हिन्दुस्तानी प्रचार का काम चलाने वाले अकेले अमृतलाल नाणावटी बाहर रहे थे। बाहर आने के बाद में देखा कि सारे देश का वायुमण्डल बदल गया है। हिन्दी प्रचार के लिए भी कांग्रेस कुछ विशेष कर सके, ऐसा नहीं है। जवाहरलालजी तो गांधीजी कहें, ऐसा प्रस्ताव पास कर
१६८ | समन्वय के साधक