Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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का हित समझकर उसे बिना पैसे लिये अपने अखबार में छायेंगे। किन्तु विज्ञापन की आमदनी पर अखवार नहीं चलना चाहिए ।
उन दिनों बापूजी की इस नीति की खूब चर्चा चली। मेरा अभिप्राय पूछा गया। मैंने कहा, "बापूजी का नियम व्यवहार्य है या नहीं, मैं नहीं जानता, किन्तु उनकी नीति मुझे सौ प्रतिशत मान्य है। उनकी जगह यदि मैं होता तो इतनी हिम्मत करता या नहीं, यह बात अलग है।"
बापूजी की नीति का समर्थन करने के लिये मैंने एक उदाहरण दिया, "समाज में धर्म, नीति, सदाचार, संस्कारिता, कला- विकास इत्यादि दाखिल करने के लिए एक मंदिर बनाया गया। मंदिर द्वारा इन सब कामों को उत्तम प्रोत्साहन दिया जाने लगा ।
" मंदिर का चालू खर्च पूरा करने के लिए मंदिर के आसपास दुकानें बनाई गईं और उन दुकानों में अश्लील साहित्य बिकने लगा और आसपास भ्रष्टाचार फैला। विज्ञापन की आय से अखबार चलाने की बात भी वैसी ही है।"
ऐसा कड़ा उदाहरण सुनने के बाद टीकाकार चुप हो गए ।
अब प्रश्न उठा एक गुजराती अथवार चलाने का। बापू ने कहा, “सरकार और उसके गोरे अधिकारी ध्यान दें, इसलिए हम अंग्रेजी में लिखते हैं। हर एक प्रान्त में अंग्रेजी जाननेवालों की संख्या केवल आठ-दस प्रतिशत होती है । उनके लिए हम अंग्रेजी अखबार चलाएं और जिनको अंग्रेजी की गंध भी नहीं है ऐसी नब्बे प्रतिशत जनता को हम भूखे रखते हैं— उनको शिक्षण नहीं देते, यह बहुत बड़ी खामी है ।" मैंने बीच में कहा, "लोकमान्य तिलक का साप्ताहिक 'केसरी' मराठी द्वारा सारे महाराष्ट्र को शिक्षण देता है । लोकमान्य का दूसरा अंग्रेजी अखबार भी है 'मराठा' जो अब तक स्वावलम्बी नहीं हुआ है, क्योंकि 'अंग्रेजी जाननेवाले लोग लोकमान्य के तेजस्वी विचार सुनने को भी तैयार नहीं है, " इत्यादि ।
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गांधीजी ने गुजराती साप्ताहिक चलाना तय किया किन्तु वह भी उनको पुराना ही चाहिए था। यह बात सुनते ही इन्द्रलाल याग्निक मदद को आ गए। 'नवजीवन और सत्य' नाम का उनका एक मासिक चल रहा था। मालिकों ने वह मासिक गांधीजी को सौंप दिया। उसी नाम को छोटा करके बापूजी ने उसे साप्ता हिक बनाया । शंकर लाल बैंकर ने एक प्रेस खरीद लिया, उसी प्रेस में 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' छापने का तय हुआ ।
अब इस प्रेस और अखबार की व्यवस्था कौन संभाले ? आश्रम में मुझसे मिलने को आनेवाले लोग गांधीजी से भी मिलते थे । ऐसे आने वालों में स्वामी आनन्द और जुगतरामभाई दवे के नाम अभी याद आते हैं । दूसरे कई लोग भी मेरे द्वारा बापूजी से परिचित हुए थे, उनमें अत्यन्त महत्व के एक थे बेलगांव के कर्नाटककेसरी गंगाधरराव देशपाण्डे इसका श्रेय लेते मुझे संकोच होता है, किन्तु गंगाधरराव ने स्वयं अपने लेख में उल्लेख किया है कि काकासाहेब द्वारा मैंने गांधीजी का परिचय प्राप्त किया ।
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इतनी छोटी उमर में भी स्वामी आनन्द ने अपनी कार्यशक्ति और सजगता का उत्तम परिचय दिया था। पूज्य बापूजी ने स्वामी आनन्द को प्रेस का और अखबार का काम सौंप दिया। स्वामी आनन्द ने कहा, " प्रेस लाये हैं शंकरलाल बैंकर । इसलिए उनका अधिकार उसमें चलेगा। उनके प्रति मेरे मन में कुछ नहीं है, किन्तु किसी का अधिकार चलाना मैं सहज नहीं कर सकूंगा । प्रेस के जितने पैसे लगे हों, वह कहीं से भी लाकर दूंगा, किन्तु प्रेस केवल गांधीजी का और उसकी व्यवस्था मेरे हाथ में होनी चाहिए।"
‘नवजीवन' के पहले अंक में बापूजी ने आश्रम की महिलाओं के पास से एक-एक लेख मांगा। नरहरि भाई की पत्नी मणिबहन, किशोरलालभाई की पत्नी गोमतीबहन, आदि ने एक-एक लेख दिया। ये नाम इस
बढ़ते कदम जीवन-यात्रा / १७१