Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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इन्दौर के दो अधिवेशन के बीच के १७ सालों में देश ने बहुत प्रगति की थी। गुजरात में सर्वप्रथम सत्याग्रह आश्रम में शिक्षण का काम मैंने लिया था। साथ-साथ गांधीजी के गुजराती साप्ताहिक 'नवजीवन' में मैं लिखने लगा था। देखते-देखते 'नवजीवन' की सारी प्रवृतियों के साथ मेरा सम्बन्ध बढ़ गया। गुजराती भाषा का मैं एक नियमित लेखक बना। साहित्य-सेवा करते-करते सारे प्रदेश के पूरे सार्वजनिक जीवन के साथ भी मेरा सम्बन्ध हो गया।
इतने में स्वराज्य के आन्दोलन में गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के साथ असहयोग की नीति की घोषणा की। उसमें सरकारी शिक्षण और सरकारी विश्वविद्यालय आदि का बहिष्कार मुख्य होने से गुजरात के लिए एक राष्ट्रीय विद्यापीठ की स्थापना करने का दायित्व हमें लेना पड़ा । साथ-साथ महाराष्ट्र, मद्रास, बिहार, बंगाल इत्यादि अनेक प्रान्तों के राष्ट्रीय शिक्षण में गांधी विचार समझाने की जिम्मेदारी मेरे सिर आ पड़ी। मैं गुजरात जाकर बसा हुआ एक महाराष्ट्रीय, फिर भी पूरे गुजराती के तौर पर जनता ने मुझे स्वीकार किया। इतना गुजरात के साथ मैं तद्रूप हो गया था।
मेरी साहित्य-सेवा की मानो कदर करने की दृष्टि से महात्माजी ने गुजराती भाषा की शुद्ध जोड़नी सिखाने वाला एक कोश बनाने का काम मुझे सौंपा। गुजरात की जनता ने गांधीजी की यह पसन्दगी सहर्ष स्वीकार कर ली। यह मेरे लिए जितना आश्चर्यकारक था, इतना ही धन्यता का भी विषय था।
मैंने तुरन्त विद्यापीठ की ओर से एक समिति नियुक्त की, इसके लिए गांधीजी की अनुमति भी ले ली और उसके लिए सतत एकाग्र मेहनत करके पांच वर्ष में गांधीजी को गुजराती भाषा का एक सम्पूर्ण जोड़नीकोश दे दिया। गांधीजी ने भी हमारी इस प्रवृति को आशीर्वाद देते जाहिर किया, "अब से किसी भी गुजराती को गुजराती शब्दों की मनमानी जोड़नी चलाने का अधिकार नहीं है।" ऐसा आशीर्वाद मिलते ही उसी कोश की एक साथ विशाल आवति तैयार करने का काम मैंने अपने साथियों को सौंपा, जो दो बरस के अन्दर सन्तोषकारक रीति से प्रकाशित हो गया।
इन सत्रह साल के दरमियान गांधीजी ने दो खास काम मुझे सौंपे। एक, गुजरात विद्यापीठ जैसे अत्यन्त महत्व की संस्था की सब मुश्किलें दूर करके उसका काम केन्द्रित करके सारी संस्था का कार्यभार गांधीजी ने सन् १९२८ में मुझे सौंपा। वह काम मैंने सात वर्ष तक किया।
___ विद्यापीठ का काम मेरी सारी जिन्दगी का सर्व समन्वयकारी काम हो गया ! कम-से-कम तीस वर्ष मुझे यह काम करना ही चाहिए, ऐसी सूचना बापूजी की थी। तीस वर्ष का आंकड़ा पूज्य बापूजी ने अपनी कलम से लिखा था।
किन्तु परिस्थिति और मेरी मर्यादाएं आदि का विचार करके मैंने गुजरात छोड़कर सारे देश में अथवा कहीं भी बापूजी के रचनात्मक काम के लिए ही जीवन अर्पण करना तय किया। गुजरात छोड़ने का मेरा निश्चय बापूजी को बिलकुल पसन्द नहीं आया। उन्होंने आग्रह भी किया, किन्तु जब देखा कि वैसा नहीं हो सकेगा तब हिन्दी का काम मुझे सौंपने का उनका पुराना संकल्प जाग्रत हुआ। गांधीजी के विचार के मुझे दो महत्त्व के कार्य करने थे, प्रथम मुझे दक्षिण में जाकर वहां का हिन्दी प्रचार का काम अधिक व्यवस्थित और मजबूत तरीके से करना था। दूसरे, उसके लिए दक्षिण के स्थानीय लोगों से पैसे एकत्र करके राष्ट्र भाषा प्रवृत्ति की जड़ दक्षिण भारत के लोगों के जीवन में पहुंचाना था। सन् १९३४ के दिसम्बर के प्रारम्भ में उन्होंने यह काम मुझे सौंपा। दक्षिण में सर्वत्र घमकर 'भारतीय संस्कृति को व्यक्त करनेवाली', और '१२ करोड़ लोगों की जन्म भाषा' हिन्दी को राष्ट्र भाषा स्वीकारने में भारतीय संस्कृति समर्थ और परिपुष्ट होगी, यह समझाने का काम दो महीने चलाया। पैसे भी ठीक-ठीक एकत्र किए। सन् १९३४ के अन्त में शुरू किए उस काम
किया
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १६३