Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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'उत्तर भारत से डर कर यदि आप दक्षिण भारत के लोग अलग रहेंगे और अंग्रेजों की छत्रछाया में रहना चाहेंगे तो देश के आप टुकड़े करेंगे। फिर एक-एक टुकड़ा भिन्न-भिन्न जबरदस्त राष्ट्र के हाथ में चला जायेगा । यह सब टालने के लिए उत्तर की प्रजाकीय भाषा सीख कर उसका प्रचार करने का काम आप ले लीजिये । जो काम एक समय श्री शंकराचार्य ने किया, वही आज आपको दूसरे ढंग से करने का है; किन्तु उसके लिए अखिल भारतीय एकता का आग्रह आपको संभालना होगा ।"
यह मैंने उत्साहपूर्वक उनको कहा। उनका सारा विरोध तो पिघल ही गया; किन्तु केरल में हिन्दी प्रचार का काम उन लोगों की ही सहायता से, पूरे जोश में शुरू हो गया !
१७ :: राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी
( १ )
भारत आते. ही गांधीजी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का काम दक्षिण भारत में शुरू किया, फिर जब गांधीजी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दुबारा अध्यक्ष हुए तब बाकी के भारत के आठ प्रान्तों में राष्ट्रभाषा प्रचार का काम शुरू किया और उसका भार मेरे ऊपर कैसे आया, सो सर्वविदित है ।
उसके बाद राष्ट्रभाषा का नाम बदलकर 'हिन्दुस्तानी' नाम चलाने का और राष्ट्रभाषा के लिए नागरी के साथ-साथ उर्दू लिपि को भी स्वीकार करने की नीति गांधीजी ने चलाई, उसका इतिहास भी सब लोग जानते हैं । गांधीजी ने यह परिवर्तन किया उस समय अपने विचार स्पष्ट रूप से गांधीजी को मैंने कहे थे और यह भी सूचना उनके सामने रखी थी कि यदि यह नीति चलानी है तो वह अमुक क्रम से चलानी चाहिए। इस बात का उल्लेख मैंने संक्षेप में किया है किन्तु उस नीति का अमल पूरी निष्ठा से किया, फिर भी उसमें सफलता क्यों न मिली और गांधीजी के देहान्त के बाद उस सारी योजना को छोड़कर राष्ट्रभाषा की नीति में मैंने व्यापक सुधार कैसे किया, उसकी कई बारीकियां बिलकुल स्पष्ट थीं उसको अब विगतवार स्पष्ट कहने में कोई नुकसान नहीं है ऐसा देखकर उसे थोड़े में यहां दे रहा हूं। इस प्रकरण द्वारा मेरी मनोवृति और मेरी नीति का स्पष्टीकरण भी होगा।
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सन् १९७५ में गांधीजी स्थायी रूप से भारत आकर बसे और अहमदाबाद साबरमती में उन्होंने सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की। थोड़े ही दिनों में मेरे जैसे अनेक साथी आश्रम में दाखिल हुए। गांधीजी ने राष्ट्र सेवा का अपना कार्यक्रम देश के सामने पेश किया, उसमें राष्ट्रभाषा के तौर पर हिन्दी को स्वीकार करके अहिन्दी प्रान्तों में उस भाषा का प्रचार करने की योजना की थी।
गांधीजी के इस हिन्दी प्रचार के बारे में सविस्तार जानने के बाद इतना बड़ा समर्थन राष्ट्रभाषा को मिल रहा है, यह लाभ देखकर हिन्दी साहित्य के सर्वेसर्वा बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन ललचाए और उन्होंने 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' के सन् १९१८ के इन्दौर के वार्षिक सम्मेलन का अध्यक्ष-स्थान गांधीजी को सौंपा, तब से सम्मेलन के साथ गांधीजी का सम्बन्ध शुरू हुआ और गांधीजी का कार्य सम्मेलन के ही नाम से चले, यह स्वाभाविक नीति का आग्रह टन्डनजी का था।
मैं १९१६ में गांधीजी के आश्रम में दाखिल हुआ, उस अर्से में (१९१७ में) मसच - गुजरात में एक
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा / १६१