Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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बापूजो उसके अध्यक्ष चुने गए। उस सम्मेलन में मैंने हिन्दी लिपि सुधार का प्रस्ताव रखा। इससे हिन्दीवाले कुछ दुखी हुए। टंडनजी मेरे प्रस्ताव का महत्त्व जानते थे किन्तु रूढ़िवादी हिन्दी लोग कहां मानने वाले थे ? उनको बहुत उलझन हुई। मैं था गांधीजी का आदमी और हिन्दी प्रचार के पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ था। वे लोग मुझे चाहते भी थे और मुझसे डरते भी थे। आगे चलकर सम्मेलन ने राष्ट्रभाषा प्रचार के लिए एक समिति नियुक्त की और उसका कार्यालय गांधीजी ने वर्धा में रखा। इस तरह राष्ट्रभाषा प्रचार मेरा जीवनकार्य बन गया। मेरे जीवन के कितने ही उत्तमोत्तम वर्ष इस प्रचार को मैंने दिये, किन्तु गांधीजी के प्रगतिशील विचारों का महत्त्व हिन्दी जगत समझ न सका । देश के टुकड़े कबूल करने पड़े। हिन्दी-उर्दू मिली-जुली हिन्दुस्तानी शैली का प्रचार की बापूजी की प्रवृत्ति का बहुत विरोध हुआ। और हिन्दी प्रचार के मेरे जीवन-कार्य में भी बाधा उत्पन्न हुई।
इस समय तो मुझे इतना ही कहना है कि मेरा भाग्य हिन्दी के भाग्य के साथ जुड़ गया, उसका प्रारम्भ मेरे आश्रम-निवास के साथ ही सन् १९१७ में हुआ।
१६:: हिन्दी यानी उत्तर का आक्रमण हिन्दी प्रचार के साथ-साथ भाषा के व्यापक सवाल का अनुभव भी मुझे यहां देना चाहिए और हिन्दी प्रचार के बारे में जो अनुभव हुए, उनमें से कई प्रसंग भी यहां देना आवश्यक है।
न जाने किस तरह किन्तु भाषा का प्रश्न छुटपन से ही मुझे महत्त्व का लगा है। हमारे घर में हम हमेशा मराठी में बोलते थे, मराठी ही हमारी जन्मभाषा थीं, उसमें कोई शंका नहीं । फिर भी घर में मेरी मां और मेरी भाभियां अचूक कोंकणी में बातें करती थीं। मैं बेलगांव शाहपुर जाता तब वहां भी हमारी बिरादरी के ज्यादातर लोग कोंकणी में ही बोलते थे, किन्तु वह कोंकणी थी मराठी-मिश्रित । इसलिए हम मानते थे कि कोंकणी तो मराठी की ही एक घरेलू बोली है। शुद्ध भाषा लिखने की, प्रतिष्ठित तरह से बोलने की और ग्रन्थ में आनेवाली भाषा तो मराठी ही है। कोंकणी उस मराठी का एक स्थानिक और मात्र बोलचाल का रूपान्तर है। ऐसा ही हम सब मानते थे। रत्नागिरी, भालवण, अलिबाग इत्यादि जिलों में जो कोंकणी बोली जाती है, वह मराठी मिश्रित है, इसलिए वहां के लोग भी कोंकणी को मराठी की एक बोली ही मानते हैं, यह बिलकुल स्वाभाविक है। बाद में जब हम गोवा गए, और कारवार की ओर गए, तब कोंकणी का शुद्ध रूप सुनने को मिला। धीमे-धीमे निश्चय हुआ कि कोंकणी मराठी के नजदीक की, किन्तु बिलकुल स्वतन्त्र भाषा है।
पिताजी के साथ यात्रा करते हुए कानड़ी भाषा का काफी परिचय हुआ। यह तो बिलकुल भिन्न भाषा, आर्य कुटुम्ब की नहीं द्रविड़ कुटुम्ब की। उसमें भी कुछ थोड़े मराठी शब्द दाखिल भले हुए हों। कन्नड़ भाषा की लिपि भी अलग और उसके संधि-नियम भी अलग। वह भाषा भी मैं थोड़ी सीखा था।
कर्नाटक में एक देशी राज्य है सावनूर । वह तो मुसलमानी राज्य था। वहां के राजवंशी लोग एक तरह की उर्दू बोलते थे, किन्तु आसपास की सार्वभौम भाषा कन्नड़ थी।
इस तरह अनेक भाषाओं का साहचर्य इस देश में है, इसका कोई इलाज नहीं। किसी भी भाषा का प्रचलन बन्द करके सर्वत्र एक ही भाषा चलाना (नेता कितना ही चाहें तो भी) जनता उसके लिए तैयार नहीं होगी। लोकव्यवहार के अनुसार भाषा का क्षेत्र बढ़ता है या घटता है। देश में भाषा की विविधता तो रहेगी
बढ़ते कदम : जीवन-यात्रा | १५७