Book Title: Kaka Saheb Kalelkar Abhinandan Granth
Author(s): Yashpal Jain and Others
Publisher: Kakasaheb Kalelkar Abhinandan Samiti
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१५:: आखिर हिन्दी मुझसे चिपकी
मैं आश्रम में दाखिल हुआ, उसके बाद थोड़े ही दिनों में भरुच (भड़ौच) में एक शिक्षण परिषद हुई। उसके अध्यक्ष होने के लिए गांधीजी को आमंत्रण था। गांधीजी ने कहा कि इस शिक्षण परिषद में आप जरूर उपस्थित रहिए। उस परिषद् के लिए एक निबंध भी लिखिए–'हिन्दी ही इस देश की राष्ट्रभाषा हो सकती है।' मैंने हां भी भर ली, लेकिन इस विषय पर मैंने खास विचार नहीं किया था।
कॉलेज में सीखता था तब एक विद्यार्थी ने मुझसे कहा था, "लोकमान्य तिलक के 'केसरी' की हिन्दी आवृत्ति मैंने मंगवाई है। उत्तर भारत में सर्वत्र हिन्दी चलती है। उस भाषा का कुछ ज्ञान होना अच्छा है, इसलिए मैं 'हिन्दी-केसरी' मंगवाता हूं।"
इस भाषा के बारे में मेरे मन में यह सर्वप्रथम जागति थी। मुझे उसका ख्याल उचित लगा। लेकिन उसका खास महत्त्व मन में उगा नहीं। कई महाराष्ट्रीय सन्तों ने कुछ कविताएं हिन्दी में की हैं, यह मैं जानता था। कई कविताएं मैंने पढ़ी थीं। कई बार हिन्दी में लोगों को बोलते सुना था। स्वराज्य होने पर सारे देश का राज्य कोई सर्वमान्य देशी भाषा में ही चलना चाहिए, ऐसा विचार अनेक बार मन में आया था। यह विषय मेरे लिए नया नहीं था, किन्तु उसपर मैंने चिन्तन नहीं किया था। सयाजीराव गायकवाड़ ने अपने राज्य में मराठी का महत्त्व कम करके उसको सिर्फ अपने निजी विभाग में ही चलाया था, बाकी का सारा सरकारी काम गुजराती में ही चलाया, क्योंकि "वही मेरी प्रजा की भाषा है और सारे देश के लिए हिन्दी को ही स्वीकार करना चाहिए।" इस ख्याल से उन्होंने हिन्दी को अपने राज्य में प्रोत्साहन दिया। यह भी मुझे मालूम था। किन्तु जब बापूजी ने शिक्षण परिषद् में पेश करने के लिए हिन्दी के बारे में निबन्ध लिखने को कहा तब इस विषय पर गुजरात के साक्षरों ने क्या-क्या लिखा है, यह सब ध्यानपूर्वक पढ़कर मैंने अपने विचार बना लिये। मूल लेख मराठी में लिखा था, बाद में उसका गुजराती किया। इसमें किसकी मदद ली थी, यह आज याद नहीं। उस लेख में मेरे विचार और गांधीजी के मुख से जो सुना, वह अच्छी तहर आ गया है। उस समय मुझे कल्पना भी नहीं थी कि यह निबन्ध मेरे भाग्य में महत्त्व का परिवर्तन करनेवाला है। यह लेख लिखा गया था १९१७ के आखिर के दिनों में।
भरुच की 'शिक्षण-परिषद' में बापूजी ने अपने भाषण में हिन्दी का महत्त्व समझाया ही था। उसे पढ़कर टंडनजी ने बापूजी को इन्दौर में होनेवाले हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष होने का आमन्त्रण दिया। इन्दौर यानी भाई कोतवाल का क्षेत्र । यह क्रान्तिकारी भाई दक्षिण अफ्रीका जाकर गांधीजी के आश्रम में रहे थे और गांधीजी पर उनका अच्छा प्रभाव था। इसलिए इन्दौर परिषद् के अध्यक्ष का स्थान बापूजी को दिलाने में भाई कोतवाल का हाथ मुख्य होना कोई आश्चर्य नहीं । खैर, बापूजी मुझे अपने साथ इन्दौर ले गए। उस सम्मेलन में मैंने भी भाग लिया होगा पर अब स्पष्ट याद नहीं है।
उसके बाद दूसरी बार १६३५ में उसी इन्दौर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ। उसमें फिर से बापूजी अध्यक्ष चुने गए।
उसके पहले सन् १९३२ में स्वराज्य आन्दोलन ने जोर पकड़ा। मैं अनेक बार जेल गया। बापूजी ने साबरमती आश्रम का विसर्जन किया। मैंने गुजरात विद्यापीठ का काम छोड़ देने का विचार किया। इतना ही नहीं, किन्तु गुजरात भी छोड़ने का निश्चय किया, जिससे बापूजी बहुत नाराज हुए। अन्त में वे मेरी बात मान गए, और दक्षिण का हिन्दी प्रचार मजबूत करने के लिए उन्होंने मुझे वहां भेजा। इस तरह राष्ट्रभाषा हिन्दी के काम में मैं पूरा-पूरा जुड़ गया। उसी अर्से में (१९३५ में) इन्दौर का हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ और
१५६ / समन्वय के साधक